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सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी को सिख दंगों से जुड़े 232 केसों को दोबारा खोलकर दोबारा से उनकी जांच करनी चाहिए : जरनैल सिंह

देश की संसद में इस प्रकार के नरसंहार के खिलाफ एक सख्त कानून बनना चाहिए, दिल्ली सरकार ने 2015 में इस संबंध में एक प्रस्ताव सदन के पटल पर पास किया था, सांप्रदायिक दंगों और मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए एक कानून बनना चाहिए :जरनैल सिंह

By: Administrators

जरनैल सिंह ने कहा कि  सुप्रीम कोर्ट  द्वारा  सज्जन कुमार को  सजा सुनाए जाने के बाद, सज्जन कुमार के इस्तीफे का इंतजार करने की बजाय कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी को तुरंत प्रभाव से सज्जन कुमार को पार्टी से बाहर निकाल देना चाहिए। यह सोचकर बड़ा दुख होता है कि सिख दंगों में हजारों निर्दोषों की हत्या करने वाले सज्जन कुमार जैसे लोगो को कांग्रेस ने तीन बार सांसद के टिकट से नवाजा। अगर कांग्रेस सच में सिखों के प्रति दर्द का भाव रखती है तो राहुल गांधी को उनकी पार्टी कांग्रेस और उनके नेताओं द्वारा 1984 में किए गए सिख नरसंहार के लिए माफी मांगनी चाहिए।

भाजपा को घेरते हुए उन्होंने कहा कि मोदी सरकार को हाईकोर्ट द्वारा दिए गए इस आदेश पर वाहवाही बटोरने की जरूरत नहीं है। हाई कोर्ट के इस फैसले में मोदी सरकार का कोई योगदान नहीं है। क्योंकि कोर्ट में चार्जशीट 2010 में दाखिल की गई थी जबकि मोदी सरकार 2014 में अस्तित्व में आई। सिखों के इस दुख के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर की जिम्मेदार हैं। सिख नरसंहार के 26 साल बाद चार्जशीट दाखिल की गई, जबकि इस दौरान केंद्र में एक बार भाजपा की सरकार भी रही। परंतु उन्होंने भी सिखों के लिए कुछ नहीं किया।

भाजपा ने 12 फरवरी 2015 को आनन-फानन में एक एसआईटी का गठन कर दिया जो कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार बनने के 2 दिन पहले बनाई गई। यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत किया गया। क्योंकि केजरीवाल ने वादा किया था कि सरकार में आते ही एक स्वतंत्र एसआईटी का गठन करके 1984 के सिख दंगों की जांच करवाएंगे। मोदी सरकार द्वारा बनाई गई एसआईटी दरअसल केजरीवाल को 1984 के दंगों की जांच करने से रोकने के लिए आनन-फानन में बनाई गई।

अंततः हुआ भी वही जिसका डर था, मोदी सरकार द्वारा बनाई गई एसआईटी ने केस का रिव्यू करने में 2 साल लगा दिए और 2 साल बाद सिख दंगों में दायर किए गए 241 केसों में से 232 केसों को बंद करने की सहमति जताई। जब सुप्रीम कोर्ट ने बंद किए गए इन 232 केसों पर पुनर्विचार करने के लिए एक एसआईटी का गठन किया तो जांच में पता चला कि 232 में से 186 केसों में कुछ किया ही नहीं गया।

हम सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध करते हैं कि 1984 के सिख दंगों से संबंधित केसों में पहले ही  34 साल बीत चुके हैं, अब  इनकी जांच जल्द से जल्द पूरी की जाए। क्योंकि कुछ गवाह जो इन केसों से जुड़े हुए थे उनकी मृत्यु हो चुकी है, और जो कुछ बचे हैं वह भी काफी बुजुर्ग हो चुके है।

क्योंकि दिल्ली की पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन नहीं आती है अन्यथा 1984 में हुए नरसंहार पर आदेश आने में इतना समय नहीं लगता। दिल्ली पुलिस ने केवल अपराधियों को बचाने का काम ही नही किया बल्कि दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी खुद सिखों के इस कत्लेआम में बराबर के हिस्सेदार थे। सिख दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका की जांच कर रही कुमकुम लता मित्तल कमेटी ने खुद माना है कि सिख दंगों में दिल्ली पुलिस का पूरा पूरा योगदान रहा है। कमेटी की रिपोर्ट में 72 पुलिस वालों का जिक्र किया गया है, जिसमें 6 आईपीएस अधिकारी भी शामिल थे। यह बड़े ही दुख की बात है कि इनमें से किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई, उल्टा 2013 के कोर्ट के ट्रायल में 6 पुलिस वालों ने सज्जन कुमार के समर्थन में बयान दिए।

कल का दिल्ली हाई कोर्ट का आदेश साफ तौर पर कहता है कि इस तरह के अमानवीय कृत्यों के खिलाफ एक कानून बनना चाहिए।

जिस प्रकार दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने 30 जून 2015 को विधानसभा में एक प्रस्ताव पास करके 1984 के दंगों को नरसंहार करार दिया, उसी प्रकार अगर मोदी सरकार सचमुच सिखों को न्याय दिलाना चाहती है तो तुरंत प्रभाव से संसद में एक बिल पास करें, और इस तरह के नरसंहार करने वालों के खिलाफ सख्त कानून का, सख्त सजा का प्रावधान बनाएं।

2004 में इस प्रकार के सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ एक प्रस्ताव बना, परंतु सदन के पटल पर रखा नहीं गया। पिछले 13 साल से यह प्रस्ताव रुका हुआ है। अब समय आ गया है कि इस प्रकार का एक बिल संसद में लाया जाए और राज्य सरकारों, पुलिस और प्रशासन की जिम्मेदारी तय की जाए। अगर पुलिस और प्रशासन इस प्रकार के दंगों को रोकने में फेल साबित होती हैं, और मुजरिमो को सजा दिलाने में नाकाम साबित होते हैं, तो उनके खिलाफ भी सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।

हमें एक ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है जिसमें बिना किसी राजनीतिक लाभ के और बिना किसी पक्षपात के दोषियों के खिलाफ कार्यवाही की जाए। अगर आतंकवाद को कंट्रोल करने के लिए पोटा और टाडा जैसे कानून बनाए जा सकते हैं। अगर निर्भया हादसे के बाद एक सख्त कानून बनाया जा सकता है, तो इस प्रकार के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए कोई कानून या व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जा सकती। यह भी एक प्रकार का आतंकवाद ही है और अब इस प्रकार के आतंकवाद को और ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

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