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अदालतों का बोझ कम करेगा दारुल क़ज़ा

अदालतों का बोझ कम करेगा दारुल क़ज़ा

By: वतन समाचार डेस्क
Darul Qaza will reduce the burden of courts: Shoeb Chaudhary

शोएब हुसैन चौधरी

बात अगर मुस्लिम समुदाय की हो तो उस से जुड़े हर मामले में भाजपमय मन और संघी सोच रखने वाले लोगों को तिनके के पीछे भी पहाड़ नज़र आता है। उसमें त्रुटियाँ ढूंढ़ी जाती है और उसके खिलाफ अनपढ़ और अज्ञानी न्यूज़ एंकरों के माध्यम से ऐसा प्रोपेगंडा फैलाया जाता है के ऐसा लगता है के यह देश भारत नहीं बल्कि ईरान और अफगानिस्तान बन गया है। ताज़ा मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उस बयान से जुड़ा है जिसमें कहा गया है कि बोर्ड अब हर ज़िला में 'दारुल क़ज़ा' खोलेगा। यह बयान आते ही जिस तरह की हाय-तौबा मच रही है उससे आप को बख़ूबी अंदाज़ा हो जाएगा कि किन परिस्थितियों में राई का पहाड़ बनाने वाली हिंदी कहावत का अविष्कार हुआ होगा।


अगर उप के हालिया उप चुनाव में जिन्ना पर गन्ना भारी पड़ गया तो इसका मतलब यह नहीं है के 2019 से पहले हिन्दू मतदातों के मन में मुस्लिम समुदाय के प्रति अविश्वास और घृणा का कोई नया बीज बो दिया जाए। दारुल क़ज़ा देश के लिए कोई ऐसी नई चीज नहीं है जिसपर इस तरह हो-हंगामा मचाया जाए। मुस्लिम समुदाय के सिविल मामलों में बीच-बचाव एवं सुलह -सफाई के लिए दारुल क़ज़ा के नाम से ऐसी अर्बिट्रेटरी संस्था 1993 से ही अपना काम कर रही है। बिहार और ओड़िसा में तो आज़ादी के पहले से ही है जहाँ लाखों करोड़ों मामलों का निपटारा किया गया है जिससे लोग अदालतों का ख्वाह-मख्वाह चक्कर लगाने से बचे हैं और समय और पैसों की बर्बादी भी नहीं हुई है।

आज दारुल क़ज़ा के नाम पर यह कहकर भ्रांतियाँ फैलाई जा रही है कि यह एक समानांतर न्यायिक प्रणाली है इसलिए इसे खोलने की इज़ाजत नहीं दी जानी चाहिए क्योंके भारत कोई इस्लामी गणराज्य नहीं है। इसी अज्ञानता के कारण ऐसे लोग दारुल क़ज़ा का अनुवाद 'शरीया कोर्ट' करते हैं। कुछ लोग तो इसकी तुलना खाप पंचतत्वों से भी कर देते हैं। उन जाहिलों को समझने की ज़रूरत है कि दारुल क़ज़ा कोई कोर्ट नहीं बल्कि सिर्फ एक अर्बिट्रेटरी संस्था है जो के सिर्फ सिविल मामलों में लोगों के बीच सुलह कराने की कोशिश करता है। इसका फैसला अगर दोनों पार्टियों में से किसी भी एक को नामंजूर हो तो उसके लिए अदालत जाने का रास्ता खुला रहता है। इसके उलट खाप पंचायतों का फैसला मानने के लिए लोग बाध्य होते हैं। ऐसी पंचायतों में तो प्रेमी-प्रेमिकाओं को पेड़ से लटका कर फांसी भी दे दी जाती है। इसकिये दारुल क़ज़ा की तुलना खाप पंचायतों से करना सरासर बेईमानी है।

आप लोगों को याद होना चाहिए कि इमराना के मामले में जब एक संघी मानसिकता के किसी व्यक्ति ने मुस्लिम पर्सनल बोर्ड और दारुल क़ज़ा के खिलाफ उच्चतम न्यालय में याचिका दायर की थी तो माननीय न्यालय ने उस याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि भारतीय संविधान में अर्टिट्रेशन का प्रावधान है और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक अर्बिट्रेटरी संस्था है।

ऐसे में जब पूरी दुनियाँ में अदालतों का बोझ कम करने के लिए अर्बिट्रेटरी कॉउंसिल्स बनाने की ज़रूरत पर बहस हो रही है, भारत में चुनावी फायदे के लिए धार्मिक द्वेष फैलाया जा रहा है और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक अच्छे क़दम का अकारण ही विरोध किया जा रहा है। अफसोस तो इस बात का है कि भाजपा और संघ के इस एजेंडे में मीडिया भी संलिप्त है। आखिर हमारा देश किधर जा रहा है.???

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति वतन समाचार उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार वतन समाचार के नहीं हैं, तथा वतन समाचार उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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