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‘भारतीय संविधान के मूल्य’ विषय पर संगोष्ठी

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता डॉ. एम. पी. राजू ने मुख्य व्याखान दिया। डॉ. सोभा मुनियप्पा, धर्मशास्त्री, धर्म ज्योति विद्या पीठ (डीजेवीपी), बैंगलोर, डॉ. एम. डी. थॉमस, संस्थापक निदेशक, इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनी एंड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, प्रोफेसर रुमकी बसु, अध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नयी दिल्ली, और श्री पी. आई. जोस, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, संगोष्ठी के अन्य वक्ता थे।

By: वतन समाचार डेस्क
Seminar on 'The Value of Indian Constitution'

New Delhi: इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनी एंड पीस स्टडीज़ (आईएचपीएस), नयी दिल्ली, द्वारा क्रिस्टियन इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ रिलीजन एंड सोसाइटी (सीआईएसआरएस), नयी दिल्ली, के सहयोग से सीआईएसआरएस हाउस, नई दिल्ली, के सभाकक्ष में 25 अगस्त 2018 को एक संगोष्ठी आयोजित की गयी। संगोष्ठी का विषय था ‘भारतीय संविधान के मूल्य’। सीआईएसआरएस, नयी दिल्ली, के कार्यक्रम संयोजक रेवरेंट अरविंद पीटर ने शुरू में मौजूद विद्वानों का स्वागत किया और कार्यक्रम के अंत में उनका आभार भी माना। संगोष्ठी के दो सत्र थे। पहले सत्र का संचालन श्री ए. सी. माइकल, पुर्व सदस्य​, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग, के द्वारा किया गया, जबकि दूसरे सत्र का संचालन सिस्टर  डॉ. शालिनी मुलाकल, प्रोफेसर​, विद्याज्योति कॉलेज​, नयी दिल्ली,  ने किया।

 

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता डॉ. एम. पी. राजू ने मुख्य व्याखान दिया। डॉ. सोभा मुनियप्पा, धर्मशास्त्री, धर्म ज्योति विद्या पीठ (डीजेवीपी), बैंगलोर, डॉ. एम. डी. थॉमस, संस्थापक निदेशक, इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनी एंड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, प्रोफेसर रुमकी बसु, अध्यक्ष​, राजनीति विज्ञान विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नयी दिल्ली, और श्री पी. आई. जोस, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, संगोष्ठी के अन्य वक्ता थे।

 

पहले सत्र में डॉ. शोभा मुनियप्पा ने ‘ईश्वर का कानून : बाइबिल के परिप्रेक्ष्य में’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किये। आपने अपने संबोधन में ईश्वरीय कानून के विभिन्न पहलुओं को बाइबिल के संदर्भ में प्रस्तुत किया। आपने न्याय के सिद्धांत, सामाजिक न्याय, कानून, प्यार और मानव कानून जैसे पहलुओं पर चर्चा की।

 

मुख्य व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए डॉ. एम. पी. राजू ने कहा कि संवैधानिक मूल्य और मानव मूल्य लगभग एक ही स्तर पर हैं। संविधान के मूल्यों और आदर्शों का सम्मान करना नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है। शुरू में मौलिक कर्तव्य संविधान का हिस्सा नहीं था और इसे बाद में जोड़ा गया था। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 में पारित किया गया। यह अधिनियम बताता है कि पाठ्यक्रम को संविधान के मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए।

 

आपने कहा कि संविधान​ में ‘निजता का अधिकार’ शब्द नहीं था। 2017 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के पैनल ने संविधान के मूल्यों की समीक्षा की और पुष्टि की कि संविधान में ‘व्यक्ति की गरिमा’ एक मूल्य है जिसमें स्वाभाविक रूप से निजता शामिल है। यह बात भारत सरकार को दिये गये जवाब में कही गयी थी, क्योंकि सरकार ने अदालत में भारतीय नागरिकों के निजता का अधिकार होने का निषेध किया था। व्यक्ति की गरिमा मूलभूत मूल्यों में से एक है जिस पर संविधान इमारत खड़ी है। इसलिए, निजता का अधिकार भी संविधान का हिस्सा है।

 

डॉ. राजू ने आगे कहा कि इस तथ्य के बावजूद कि संविधान के सभी मूल्य महत्वपूर्ण हैं, उन्हें प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। आपके अनुसार, ‘बंधुता’ संविधान का सबसे बड़ा मूल्य है। ‘व्यक्ति की गरिमा’ दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है। मौलिक कर्तव्यों में से तीन सबसे महत्वपूर्ण मूल्य हैं, जो कि वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और खोज एवं सुधार की भावना हैं। लोगों को इन महत्वपूर्ण कर्तव्यों को निभाने में अपने दिमाग का उपयोग करना चाहिए। आपने आश्चर्य व्यक्त किया कि व्यक्ति की गरिमा को शामिल किये बगैर विकास की बात करना बेईमानी है। आपने पुष्टि की कि बंधुता (भाईचारे) में सभी प्रकार के मानवीय संबंध शामिल हैं। हमें लोगों की गरिमा का ख्याल रखते हुये उनके साथ प्यार से पेश आना चाहिए।

 

डॉ. एम. डी. थॉमस ने ‘संविधान के मूल्य और धर्मों के मूल्य’ विषय पर व्याख्यान दिया। आपने संविधान के मूल्यों और धर्मों की पवित्र पुस्तकों में निहित मूल्यों को उनकी समानताओं को ज़ाहिर कर जोड़ा। आपके अनुसार दोनों बराबर सम्मान के लायक हैं, एक देश के नागरिक के रूप में और दूसरे किसी खास धर्म के अनुयायी के रूप में। मूल्य का अर्थ समझाते हुए आपने कहा कि नागरिकों और धर्म विश्वासियों के व्यवहार को प्रभावित करना इसका काम है। ‘प्रस्तावना’ संविधान का चेहरा और भाव है और इसमें निचौड़ में पूरे संविधान में विस्तार में मौजूद मूल्य न केवल देश को पहचान प्रदान करता है, बल्कि नागरिक जीवन को नियंत्रित भी करता है। साथ ही, ये मूल्य आधिकारियों और आम नागरिकों के दरम्यान संबंधों को संतुलित भी करता है।

 

डॉ. थॉमस ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए संविधान के प्रस्तावना के मूल्यों की विविध धार्मिक परंपराओं के मूल्यों से एक-एक करके तुलना की। आपने कहा कि अस्तित्व की गरिमा, स्वायत्तता, स्वशासन और सुशासन में ही राज्य की ‘संप्रभुता’ का चरित्र चरितार्थ होता है। आपने विविध धार्मिक​ समूहों में संप्रभुता के कारकों को लागू कर कहा कि इनका उल्लंघन किसी के द्वारा नहीं होना चाहिए। भारत की ‘पंथनिरपेक्षता’ को सभी धर्म-समुदायों के प्रति एक-जैसी और बराबरी की भावना रखने और उनमें फर्क नहीं करने के रूप में बताते हुए कहा कि ये बातें ईसाई, वैदिक, बहाई, बौद्ध और अन्य परंपराओं में काफी मात्रा में पायी जाती हैं। संविधान के ‘लोकतांत्रिक’ और ‘समाजवादी’ मूल्यों पर चर्चा करते हुए आपने कहा कि चुनावी और सहभागी प्रक्रियाओं के साथ-साथ सामूहिक स्वामित्व और उत्तरदायित्व की भावना कई धार्मिक संदर्भों में मौजूद हैं।

 

‘समानता’ पर चर्चा करते हुए, डॉ. थॉमस ने कहा कि यह मूल्य असल में नागरिकों और धर्म-विश्वासियों दोनों के दरम्यान होने वाले भेदभाव की जांच है। आपने कहा कि समानता का जिक्र प्राय: सभी धर्मों में है, लेकिन ईसाई धर्म जैसे कुछ धर्मों में वंचित और कमज़ोर लोगों के लिए वरीयता के साथ थामने की बात है, जैसे संविधान में पिछड़ों की सुरक्षा की बात है। ‘न्याय’ को अधिकार और कर्तव्य के साथ जोडऩे की जरूरत है, जब कि ‘बंधुता’ प्यार के दर्शन में आधारित है और ये मूल्य सभी धर्मों के आधार स्तंभ हैं। ‘आजादी’ व्यक्तियों और समुदायों का अधिकार है, चाहे वे राष्ट्रीय हो या धार्मिक। ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ एकजुटता की भावना पर आधारित है और यह एक दिव्य उपहार भी है। ‘अंतराष्ट्रीय शांति और व्यवस्था’ एक सार्वभौम मूल्य है जो राष्ट्रीय और धार्मिक कल्याण को मज़बूत करता है और यह मूल्य विविध धर्मों में भी हैं। अपनी चर्चा को समाप्त करते हुए डॉ. थॉमस ने कहा कि ‘हम लोग’ की भावना राष्ट्रीय और धार्मिक कल्याण दोनों की नींव है और ये एक दूसरे के पूरक और सहयोगी भी हैं।

 

प्रोफेसर रुमकी बसु, ने ‘संवैधानिक मूल्य और नैतिक जीवन’ विषय पर अपने विचार रखते हुए ‘अलग विचार रखने का अधिकार’, ‘लोकतंत्र’, ‘मौलिक अधिकार’, ‘बोलने की आज़ादी’, ‘सांस्कृतिक विकास’, ‘बहुसंस्कृतिवाद’ और ‘नैतिक जीवन के मूल्य की स्वतंत्रता’ पर चर्चा की। आपने कहा कि हमें संविधान के प्रस्तावना की मूल भावना के अनुसार काम करना है। निर्देश सिद्धांतों और मौलिक अधिकारों के साथ-साथ संप्रभुता, लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता नैतिक जीवन के स्तंभ हैं। संवैधानिक मूल्य देश की कानूनी व्यवस्था की नींव हैं। वे ऐसे मूल्य हैं जो देश की प्रगति को बदलने और उनकी मदद करने के लिए उन्मुख हैं। हमारे संविधान को एक अद्वितीय संविधान के साथ-साथ सबसे बड़ा तभी माना जा सकता है जब उसके मूल्य ईमानदारी से अपने नागरिकों द्वारा जीया जाये।

 

प्रो. रुमकी के अनुसार हम एक राजनीतिक समुदाय हैं और हम भारत के लोग हैं। लेकिन, संविधान के अनुसार हम भारत के नागरिक हैं। यह वह परिवर्तन है जो स्वतंत्रता या देश की आज़ादी के साथ हुआ था। एक राष्ट्र के रूप में प्रगति हासिल करने के लिए भारत के नागरिकों को देश के नियमों और कानूनों का पालन करना होगा।

 

डॉ. बसु ने आगे कहा कि लोकतंत्र, विकास और सुशासन को नैतिक मूल्यों के रूप में समझा जाना चाहिए। हमारा लोकतंत्र प्रक्रियात्मक और विकासशील है। भारत संयुक्त राष्ट्र के ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 2000’ और ‘सतत विकास लक्ष्य 2030’ का हस्ताक्षरकर्ता देश है। इसलिए, देश का कर्तव्य है कि वह नागरिकों को सुशासन के बल पर लोकतंत्र और विकास की नैतिकता सुनिश्चित करे।

 

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता श्री पी. आई. जोस ने ‘संवैधानिक मूल्य और कानून के नियम’ विषय पर सभा को संबोधित किया। अपने संबोधन में आपने कहा कि कानून का शासन राष्ट्रीय विकास का हिस्सा है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकना देश का कर्तव्य है। लेकिन यह गुजरात के दंगों की तरह कई बार विफल रहा है। आपने कहा कि सुशासन, न्याय और स्वतंत्रता राज्य के अंतिम लक्ष्य हैं। आपने कहा कि कानून का शासन संविधान के मूल मूल्यों में से एक है। जैसे-जैसे मानव इतिहास का विकास हुआ, कानून का शासन भी विकसित हुआ। यह बात मध्य युग में भी एक बुनियादी सिद्धांत रही। लेकिन उस समय शासक कानून का पालन करते थे, जो कि आज इस मामले में बहुत मज़बूत नहीं है। विभिन्न धार्मिक ग्रंथ भी कानूनी शासन पर जोर देते हैं।

 

श्री जोस ने बताया कि सामाजिक न्याय कानून की शासन का हिस्सा है। आर्थिक न्याय भी इसका हिस्सा है। लेकिन वर्तमान समय में देश के अल्पसंख्यक समुदायों की स्थिति चिंताजनक है। पुलिस व्यवस्था के साथ-साथ न्यायपालिका देश को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करने में विफल हो रही है। इन वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा लगातार बढ़ी है। देश का अंतिम लक्ष्य भारत के नागरिकों के बीच बंधुता को विकसित करना है। यह देखना हमारा कर्तव्य है कि सरकार अपने कर्तव्यों का पालन करती है या नहीं।

 

आप ने यह भी कहा कि कानून का शासन समानता में निहित है (अनुच्छेद 14)। विधायिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों का बँटवारा होना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता, निर्देश सिद्धांत, एकता और अखंडता सुनिश्चित की जानी चाहिए। आपने खेद व्यक्त किया कि सात दशकों की आज़ादी के बाद भी देश में कानून का राज नहीं है। अल्पसंख्यक समुदाय नियमित रूप से भेदभाव के शिकार हो रहे हैं। इन दिनों भीड़-हिंसा में वृद्धि हुई है। न्यायपालिका कानून का शासन प्रदान करने में विफल रहा है। यह चुप रहने का समय नहीं है। आपने संविधान के मूल्यों के लिए लडऩे की दिशा में सभा का ध्यान आकृष्ट किया। सभी नागरिकों को अपने वोटिंग अधिकार का प्रयोग करना चाहिए। चूंकि ज़मीन की वास्तविकता बहुत गंभीर है, जनता के अधिकार के लिए जागना सभी नागरिकों के लिए वक्त का तकाज़ा है।

 

सभा के अंत में वक्ताओं और श्रोताओं के दरम्यान सवाल-जवाब के साथ-साथ विचारों का भी आदान-प्रदान हुआ। सेमिनार में विभिन्न समुदायों के बुद्धिजीवी, शुभचिंतक और सर्वधर्म समन्वय के लिए प्रतिबद्ध लोग शामिल हुए जो संख्या में लगभग 40 थे। संगोष्ठी 09.30 बजे शुरू हुआ और 14.00 बजे भोजन के साथ समाप्त हुआ। संगोष्ठी में लोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक नेतृत्व को सुदृढ़ करने के लिए, खासकर राष्ट्रीय समाज की ज्वलंद समस्याओं को लेकर, इसी तरह की सभाओं की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।

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