मौलाना सैयद अरशद मदनी
यूरोप में फ्रांस भी एक देश है जिसका एक ज़माने तक पश्चिम, टयूनीशिया और अल्जीरिया आदि मुस्लिम देशों पर शासन रहा है, उस ज़माने में बहुत से मुसलमान रोज़ी-रोटी की तलाश में फ्रांस गए और वहीं बस गए, उनको वहां अब नागरिकता के अधिकार प्राप्त हैं, इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत बहुत से मुसलमान अपने देशों के उत्पीड़न से छुटकारा पाने के उद्देश्य से जिस तरह यूरोप और अमरीका के अनेक देशों में गए और ठहर गए उसी तरह फ्रांस भी गए और वहीं बस गए। इन लोगों को विशेष रूप से यूरोप में योरपी लोगों की तरह लगभग सभी अधिकार प्राप्त हैं और अगर अभी नहीं हैं तो कुछ समय के बाद प्राप्त हो जाएंगे, वहां की सरकारों ने उनको स्वीकार किया, जीवन यापन की सुविधाएं पूरोपियन लोगों की तरह उनको प्रदान कीं, ये लोग अपने देशों में जिस काम का अनुभव रखते थे यहां धीरे धीरे उन्होंने वही काम शुरू किये और उसमें ऐसी प्रगति की जो वहां के एक वर्ग की आंखों में खटकने लगी, चुनांचे उनमें सांप्रदायिक मानसिकता रखने वाला एक तत्व जो लगभग हर जगह मिलता है, वो तत्व ऐसी चीजों को देखकर बेचैन है कि वो लोग दिन प्रति दिन प्रगति कर रहे हैं, उनके विचार में कल के आए हुए अजनबी या काले लोग हमारे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते जा रहे हैं, यही वो लोग हैं जो आए दिन मस्जिदों को तोड़ते फोड़ते रहते हैं, आग लगाते रहते हैं और निदोर्ष नमाज़ियों की हत्या करते हैं।
इस तथ्य के बाद ध्यान देने योग्य है कि फ्रांस में इस समय होने वाली अनैच्छिक घटना अपने दो रुख रखती हैः- एक तो सरकार का रुख है, जिसमें असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ बोलने-लिखने की ऐसी स्वतंत्रता है जिससे न केवल पुरुष का मान-सम्मान सुरक्षित है, न महिला का, न किसी बुजुर्ग की और न किसी पूर्वज की। दुनिया के किसी भी सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का जैसा चाहो कार्टून बनाकर प्रस्तुत कर दो, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वह किसी भी कानून की गिरिफ्त से बाहर और स्वतंत्र है। फिर इससे भी अधिक आश्चर्य इस बात पर होता है कि भारत जैसा समस्याओं से जूझता हुआ देश इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है, वह यह नहीं समझ रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ अगर भारत जैसे विभिन्न धर्मों वाले देश में स्वीकृति पा जाए तो क्या पूरे भारत में एक दिन भी शांति रह सकती है, लेकिन बुरा हो कट्टर पंथियों की मानकिसता का कि उत्पन्न होने वाली समस्याओं और परिणामों से पूर्ण रूप से अनजान हो कर असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन कर दिया हालांकि कुछ पक्षपाती मीडीया को असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के नाम पर किसी विशेष धर्म के लोगों का उत्पीड़न करने पर भारत की कुछ अदालतों द्वारा फटकार पड़ चुकी है और जमीअत उलमा-ए-हिंद की ओर से इस सिलसिले में एक याचिका सुप्रीमकोर्ट में लगी हुई है। आशा है कि इसका फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के असीमित होने के खिलाफ ही होगा, जिसके बाद अल्लाह ने चाहा तो धर्म के नाम पर धार्मिक लोगों के उत्पीड़न का सिलसिला कानूनी रूप से बंद हो सकेगा।
इस अनैच्छिक घटना का दूसरा रुख चाकू के वो हमले हैं जो एक के बाद एक फ्रांस और दुनिया के अन्य देशों में घटित हो रहे हैं जिनमें दोषी कम और निदोर्ष पुरुष-महिलाएं अधिक मौत का शिकार हो रहे हैं, क्या किसी की मुहब्बत ही में सही देश के कानून को अपने हाथ में लेने की अनुमति दी जा सकती है? और क्या परिणाम सोचे बिना कुछ मुसलमानों का कानून को अपने हाथ में लेना दुनिया के ईसाई देशों में बसने वाले करोड़ों मुसलमानों के लिए लाथकारी हो सकता है? अगर इस प्रकार की घटनाओं के बाद वह सांप्रदायिक संगठन जो इन देशों में कार्य कर रहे हैं मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ सक्रिय हो जाएं, तो उन करोड़ों मुसलमान और उनके बच्चों का क्या होगा जो इन देशों में जिंदगी गुज़ार रहे हैं, जबकि फ्रांस में लगभग 57 लाख और इस से सटे हुए देशों जर्मनी में 50 लाख, ब्रिटेन में 41 लाख, स्वीडन में 8 लाख, आॅस्ट्रिया में 7 लाख, इटली में 29 लाख और हालैंड में लगभग 8 लाख 50 हज़ार मुसलमान आबाद हैं। अब एक बार नहीं दस बार सोचने की बात है कि अगर कुछ क्रोध में अंधे लोगों के कानून को अपने हाथ में लेने के परिणाम स्वरूप वहां की सांप्रदायिक शक्तियों को ताक़त मिल गई और अगर खुदा न करे पर्दे के पीछे वहां की सरकारों का संरक्षण भी उनको प्राप्त हो गया तो पूरे यूरोप में फैले हुए मुसलमानों का भविष्य क्या होगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप इस काले कानून या टीचर या किसी कंपनी के घृणास्पद सिद्धांतों का विरोध न करें लेकिन मेरे विचार में कानून को अपने हाथ में लेना, अशांति फैलाना, हत्या एवं हिंसा करना न इस्लाम का इन देशों में सही चरित्र प्रस्तुत करता है और न वहां बसने वाले करोड़ों मुसलमानों के भविष्य को संतोष जनक बनाता है। मैं इस बात को इसलिए कह रहा हूं कि हम अपने देश में इसी प्रकार की राजनीति के पचासों वर्षों से शिकार हैं, हमारे देश में हिंदू भाई गाय की पूजा करते हैं, अब मुसलमान के गाय काटने के कारण या केवल बहाना बनाकर क़ानून को अपने हाथ में लिए जाने की घटना होती है और मुसलमान का खून कर दिया जाता है। जब हम यहां लोगों को कानून अपने हाथ में लेने का विरोध करते हैं तो फ्रांस में इसका विरोध क्यों नहीं करेंगे। मेरे विचार में जिस तरह आज पूरी दुनिया में मुसलमान फ्रांस के खिलाफ विरोध कर रहे हैं अगर आज से पहले असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ उठ खड़ा हो जाता तो वो एक बेहतरीन तस्वीर होती और सांप भी मर जाता, लाठी भी न टूटती।
मेरा खयाल है कि अंतराष्ट्रीय प्रदर्शन के नतीजे में आज जब फ्रांस के राष्ट्रपति भी यूटर्न ले रहे हैं, तो भारत सराकर और सत्ता में मौजूद लोगों को भी अपने देश की आबादी और स्थिति को देखते हुए फ्रांस के रुख से पीछे हटना चाहिये और अरबों मुसलमानों के उत्पीड़न से दूर हो जाना चाहिये।
(लेखक जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष हैं, यह उनकी निजी राय है)
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