ज्ञात रहे कि सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले से थियेटर्स में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट ने 30 नवंबर 2016 को दिया अपना फैसला पलटते हुए अब इसे ऑप्शनल कर दिया है। इससे पहले केंद्र सरकार ने एफिडेविट दाखिल करके कोर्ट से इस फैसले से पहले की स्थिति बहाल करने की गुजारिश की थी। उसका कहना था कि इसके लिए इंटर मिनिस्ट्रियल कमेटी बनाई गई है, जो छह महीने में अपने सुझाव देगी। इसके बाद सरकार तय करेगी कि कोई नोटिफिकेशन या सर्कुलर जारी किया जाए या नहीं।देश पर अपनी तथाकथित देशभक्ति थोपने वालों से कम से कम यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि जिस वक्त असली राष्ट्रवादी अंग्रेजो के खिलाफ जंग लड़ रहे थे उस वक्त यह तथाकथित देशभक्त अंग्रेजों की मुखबिरी क्यों कर रहे थे? क्यों उन्होंने देश प्रेम और देशभक्ति पर अंग्रेजों से प्रेम और अंग्रेजों की भक्ति को तरजीह दी थी? इन देशभक्तों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर तीन रंगों वाले तिरंगे को अब तक यह अपशगुन क्यों मानते रहे हैं? क्यों उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि तीन रंगों वाला तिरंगा गर्चे इन के हाथों में जबरदस्ती थमा दिया जाए लेकिन इस पर उनका कोई विश्वास नहीं है? आखिर इन तथाकथित देशभक्तों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जब देश के असल प्रेमी लाहौर से लेकर दिल्ली तक अपने सर देश की आजादी के लिए कटा रहे थे उस वक्त यह क्यों अंग्रेजों के मुखबिर बनकर देश का राज बेच रहे थे? इन देशभक्तों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर तिरंगे पर यह भगवा झंडे को तरजीह क्यों देते हैं? और क्यों इन के लोग संविधान पर मनुस्मृति को तरजीह देते हैं? अभी बीते रोज युवा नेता जिग्नेश मेवानी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल करते हुए उनसे पूछा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मनुस्मृति और संविधान में से एक को चुनना होगा? क्या यह तथाकथित राष्ट्रवादी इसका जवाब देने की कोशिश करेंगे कि इनके लिए संविधान प्यारा है या मनुस्मृति, क्यों की मंत्री जी ने तो साफ़ कर दिया है कि सत्ता इन को संविधान में बदलाव के लिए मिली है. 23 अक्टूबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था कि सिनेमाहॉल और दूसरी जगहों पर राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य हो या नहीं, इसे वह (सरकार) तय करे. इस संबंध में जारी कोई भी सर्कुलर कोर्ट के इंटेरिम ऑर्डर से प्रभावित न हो.
कोर्ट ने अक्टूबर में यह भी कहा था, "लोग मनोरंजन के लिए फिल्म देखने जाते हैं, वहां उन पर इस तरह देशभक्ति थोपी नहीं जानी चाहिए। यह भी नहीं सोचना चाहिए कि अगर कोई शख्स राष्ट्रगान के दौरान खड़ा नहीं होता तो वह कम देशभक्त है।"अब सवाल यही है कि आखिर इन को देश भक्ति का सनद देना का ठीक किस ने दिया है? बेंच ने कहा कि समाज को मॉरल पुलिसिंग की जरूरत नहीं है। तो क्या बीजेपी वाले समाज को अपनी देश भक्ति की ओर ले जाना चाहते हैं या फिर बाबा साहब की देश भक्ति की ओर यह देश को ली जाना चाहते हैं. अगली बार सरकार चाहेगी कि लोग टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहनकर सिनेमाहॉल 'न' आएं, क्योंकि इससे भी राष्ट्रगान का अपमान होता है. बेंच ने कहा- हम आपको (केंद्र को) हमारे कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की इजाजत नहीं दे सकते. आप इस मुद्दे को रेग्युलेट करने पर विचार करें. अदालत का यह तबसरा कोए मामूली नहीं है और सरकार को आइना दिखाने के लिए काफी है. शायद सरकार को अक्ल आती और वह गौर करती, लेकिन ... बेंच ने कहा था, किसी से उम्मीद करना अलग बात है और उसे जरूरी करना अलग. नागरिकों को अपनी बांहों (sleeves) में देशभक्ति लेकर चलने पर मजबूर तो नहीं किया जा सकता. अदालतें अपने ऑर्डर से लोगों में देशभक्ति नहीं जगा सकतीं. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यह तल्ख टिप्पणियां पिछले साल दायर की गई श्याम नारायण चौकसे की पीआईएल पर सुनवाई के दौरान की. चौकसे ने मांग की थी कि सभी सिनेमाहॉल में मूवी शुरू होने से पहले नेशनल एंथम मेंडेटरी किया जानी चाहिए. जस्टिस मिश्रा की बेंच ने ही पिछले साल नेशनल एंथम को सिनेमाहॉल्स में मेंडेटरी करने का ऑर्डर जारी भी किया था. उम्मीद है कि बीजेपी वाले अपनी तथाकथित देश भक्ति थोपने से अब बाज़ आयेंगे, क्योंकि देश को अम्बेडर और गाँधी वादी भक्ति की ओर ले जाने के बजाये गोडसे की भक्ति की ओर ले जाना ठीक नहीं है. email:- tariqanwarindia@gmail.com (तारिक़ अनवर वरिष्ठ पत्रकार, सांसद और भारत सरकार के पूर्व मंत्री हैं, यह लेखक का व्यक्तिगत विचार है, लेखक के विचारों से ‘वतन समाचार’ की सहमती जरूरी नहीं है)
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