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घातक हो सकता है ट्रंप का फैसला!

के. सी. त्यागी संयुक्त राष्ट्र् समेत वैश्विक असहमति के बावजूद अमेरिकी राष्ट्र्पति डोनाल्ड ट्र्म्प द्वारा येरूसलम को इजरायल की राजधानी की मान्यता दिये जाने की घटना ने पूरे विश्व को चिंतित किया है। तल अबीब स्थित अमेरिकी दूतावास को येरूसलम स्थानांतरित करने के सख्त आदेश की फिलीस्तीन, जाॅर्डन व अरब मुल्क समेत कई यूरोपीय-एशियाई राष्ट्रों द्वारा कड़ी निंदा की गई है। ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस व जर्मनी जैसे देशों ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताकर मध्य-पूर्व में हिंसा भड़कने की आशंका जताया है तो वहीं अरब जगत इसके व्यापक असर को लेकर चिंतित है। यरूसलम तथा वेस्ट बैंक के इलाकों में हिसंक घटनाओं की भी खबरें हैं। इसी परिपेक्ष्य में शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र् सुरक्षा परिषद की बैठक भी आहुत है। इसके महासचिव एंटोनियो गुटेरस द्वारा ट्र्म्प के फैसले को दो देशों के बीच शांति की संभावनाओं को नष्ट करने जैसा कदम बताया गया है। फैसले की संवेदनशीलता को देखते हुए पोप फ्रांसिस ने अमेरिका से ‘यरूसलम में यथास्थिति का सम्मान करने का आग्रह किया है। स्पष्ट है कि अमेरिकी राष्ट्र्पति के इस फैसले का पूरी दुनिया में विरोध है क्योंकि तकरीबन सात दशकों से अमेरिकी विदेश नीति और इजरायल-फिलीस्तीन के बीच जारी शांति बहाली की प्रक्रिया में इस विवादित पहल के नकारात्मक असर की संभावनाएं अधिक है। शुरूआती प्रतिक्रिया के तहत ईरान के राष्ट्र्पति हसन रोहानी द्वारा इसे ‘इस्लामी भावनाओं के उल्लंघन का प्रयास बताते हुए कतई बर्दाश्त नहीं करने की तल्ख टिप्पणी चिंताएं बढ़ाती हैं। मसले की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि तुर्की के राष्ट्र्पति एर्दोगान द्वारा 13 दिसम्बर को इस्तान्बुल में ‘इस्लामिक सम्मेलन‘ बुलाया गया है जिसमें आॅग्रेनाईजेशन आॅफ इस्लामिक काॅपरेशन के सदस्य राष्ट्र् शामिल होंगे। एक कदम आगे बढ़ तुर्की ने इजरायल से अपने कूटनीतिक संबंधों की समाप्ति की भी घोषणा कर दी है। इजरायल जहां इस फैसले को ऐतिहासिक एवं साहसिक बता रहा है, फिलीस्तीन इसे शांति बहाली प्रक्रिया का सत्यानाश तथा मुस्लिम-ईसाइयों के खिलाफ जंग का एलान मानता है। येरूसलम की धार्मिक संवेदनशीलता से सब वाकिफ हैं। यहां से यहूदी, मुस्लिम और ईसाई तीन धर्मों की आस्था जुड़ी है। अल अक्सा मस्जिद विश्व भर के मुसलमानों के लिए जहां तीन सर्वाधिक पवित्र स्थलों में से एक है तो यहूदियों का सुलेमानी मंदिर भी यही स्थित है। इसी जगह पर ईसाइयों की वेस्टर्न वाॅल भी है। दशकों से विवादित यह शहर फिलीस्तीन-इजरायल के विवादों की मुख्य वजह बनी हुई है। यरूसलम स्थित इस मस्जिद में फिलीस्तीनियों के आने-जाने पर कई तरह के अवरोध जैसे नमाजियों की तालाशी तथा प्रार्थना के दौरान लाउड-स्पीकर की आवाज कम करना व अन्य तरह के प्रतिबंध आदि धार्मिक टकराव के हालिया कारण रहे हैं। एक दूसरे के अस्तित्व को मान्यता, सीमा-सुरक्षा, जल अधिकार, धार्मिक हस्तक्षेप, येरूसलम पर नियंत्रण, शरणार्थियों की समस्या आदि लम्बे समय से टकराव के मुद्दे बने हैं। ऐतिहासिक पक्ष है कि 1914 के दौरान जब फिलीस्तीन तुर्की के आॅटोमन सामा्रज्य का हिस्सा था, लाखों की संख्या में अरब और हजारों की संख्या में यूरोप से आये यहूदी निवास करने लगेे थे। इसी दौरान ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री लाॅर्ड बलफोर द्वारा फिलीस्तीन में यहूदियों को बसाने का वादा कर दिया गया था। वर्ष 1922 से ब्रिटिश हुकूमत के अधीन होने के बावजूद इस क्षेत्र को लेकर दोनों पक्षों के बीच गृह युद्ध जारी रहा। 1939 तक यूरोप से लाखों की संख्या में यहूदी फिलीस्तीन पहुंचे जिसका फिलीस्तीनियों द्वारा कड़ा विरोध होता रहा। 30 नबम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र् द्वारा यहूदियों व अरबों के विवाद सुलझाने की योजना को सहमति मिली जिसके तहत 15 मई 1948 को अंग्रेजी शासन समाप्त होने के बाद इजरायल व फिलीस्तीन को अलग-अलग पहचान मिली। धर्म के प्रमुख तीर्थस्थलों वाले शहर यरूसलम को फिलीस्तीन व इजरायल दोनों ही से अलग पहचान दी गई। सन् 1948 में एक बार फिर दोनों राष्ट्रों में युद्ध हुआ जिसमें यरूसलम के पश्चिमी हिस्सों पर इजरायल का कब्जा हुआ। लाखों की संख्या में शरणार्थी पड़ोसी मुल्क में विस्थापित भी हुए। वर्ष 1967 के इजरायल-फिलीस्तीन युद्ध में फिलीस्तीन को पूर्वी यरूसलम समेत अपने कुछ और हिस्से खोने पड़े। महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र् द्वारा इजरायली कब्जे वाले इन क्षेत्रों को मान्यता प्राप्त नहीं है। सच है कि अधिकांश यूरोपीय देश इसके विरोध में दिखते हैं लेकिन अमेरिकी नीतियां अस्पष्ट, एकतरफा व गैर-जिम्मेदाराना रही है। अमेरिका में वर्ष 1995 में अपने दूतावास को यरूसलम स्थानांतरित करने का कानून पारित किया गया था परन्तु अब तक के राष्ट्र्पति मुद्दे की संवेदनशीलता एवं संयुक्त राष्ट्र् के मानकों के मध्येनजर मान्यता प्रदान करने से परहेज करते रहे। ट्र्म्प द्वारा अपने चुनावी भाषणों में इस मुद्दे को खूब प्रचारित कर वादा किया गया कि सत्तासीन होने पर यरूसलम को राजधानी की मान्यता दी जाएगी। वादा यह भी किया गया था कि वह इस्राइलियों के लिए सबसे चहेते राष्ट्र्पति होंगे। उनकी कैबीनेट में यहूदीवादी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं भी। इस निर्णय के संकेत गत 15 फरवरी को वाशिंगटन में आयोजित एक साझा प्रेस काॅन्फ्रेंस के दौरान ही मिल गये थे जब ट्र्म्प द्वारा ‘एक राष्ट्र्‘ की हामी भर दूतावास को तेल अवीव से स्थानांतरित करने का वक्तव्य दिया गया था। इन मुद्दों पर ओबामा प्रशासन की नीति संतुलित रही है जबकि ट्र्म्प इसके जरिये चुनावी वादा पूरा कर गये। इस तथ्य में दो राय नहीं कि इजरायल में बेंजामिन नेतान्याहु और अमेरिका में ट्र्म्प के निर्वाचन के बाद इन मुद्दों में गर्माहट बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र् द्वारा फिलीस्तीनी जमीं पर उपनिवेशन को लेकर पारित प्रस्ताव का नेतान्याहु द्वारा ठुकराया जाना कड़े तेवर का संकेत था। डेविड एम फ्रेडमैन जो इजरायल में बतौर अमेरिकी दूत कार्यरत है, उसपर इजरायल के कब्जे वाले इलाकों में अवैध उपनिवेशन हेतु चंदा जुटाने का आरोप है। ट्र्म्प के संबंधी से जुड़ी वेस्ट बैंक की परियोजनाओं हेतु धन जुटाने की खबर काफी चर्चा में रही। ट्र्म्प प्रशासन द्वारा फिलीस्तीनियों को मिल रही अनुदान की राशि भी बंद की जा चुकी है। ऐसे तमाम प्रसंगों से शक की गुंजाईश नहीं बचती कि अमेरिकी नीतियां ‘दो-राष्ट्र् एजेंडे‘ तथा क्षेत्र में शांति कायम रखने की पक्षधर नहीं हैं। इस स्थिति में मजबूत वैश्विक हस्तक्षेपों से उम्मीद बची है। पश्चिम एशिया के राष्ट्र् इस विषय गंभीर जरूर दिखे हैं परन्तु फिलीस्तीनी एकजुटता दिनानुदिन कमजोर ही हुई है। इस दिशा में ईरान, तुर्की व अन्य देशों द्वारा शांति की पहल अवश्य हुई लेकिन यासिर अराफात के आंदोलनरत रहते समाधान का जैसा मार्ग प्रशस्त होता था, अब नहीं दिखता। यह भी सच है कि 2007 में गाजापट्टी में फिलीस्तीनियों की आजादी के संघर्ष में कट्टर व आक्रामक रणनीति को बढ़ावा देने वाले ‘हमास‘ के कब्जा के बाद संघर्ष और भी हिंसक व अनियंत्रित हो चुका है। जहां तक भारत का सवाल है इसका रूख स्वतंत्र व सुसंगत है। विदेश मंत्रालय की तरफ से स्पष्ट है कि मसले पर राष्ट्र् का रूख अपने विचारों व हितों के अनुरूप होगा न कि किसी अन्य देश के अनुरूप। स्मरण रहे कि यह पहला गैर अरब देश था जिसने फिलीस्तीन को मान्यता देकर राजनीतिक संबंध स्थापित किया जबकि नब्बे के शुरूआती दिनों तक भारत इजरायल को मान्यता प्रदान करने से गुरेज करता रहा। श्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल, 1992 में इजरायल को मान्यता दी गई जिसके बाद से भारत-इजरायल के सैन्य संबंध मजबूत हुए। इसी वर्ष पहले भारतीय प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा वैश्विक घटना बनी। उनके फिलीस्तीन यात्रा की खबर भी चर्चा में है। आशा है कि वैश्विक हस्तक्षेपों से ‘यरूसलम‘ का शांतिपूर्ण हल इसे एक बार फिर शांति एवं ‘धर्म-केंद्र‘ का प्रतीक बनाने में सफल होगा। (लेखक जेडीयू के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव, राष्ट्रीय प्रवक्ता व पूर्व सांसद है, यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, लेखक के विचारों से ‘वतन समाचार’ की सहमती जरूरी नहीं है।)

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