सोल: इस्लाम कोरियाई प्रायद्वीप में काफी देर से पहुंचा। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि दक्षिण कोरिया की पहली पहली मस्जिद 1976 में बनकर तैयार हुई.
पिउ रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर कोरिया में साल 2010 में मुसलमानों की आबादी करीब 3,000 थी तो दक्षिण कोरिया में 76,000 थी.
हालांकि कोरियाई मुसलमानों की जिंदगी बाकी दुनिया के लिए ये एक रहस्य जैसा ही है.
यूट्यूब पर वीडियो शो पेश करने वाले चैनल जेटीबीसी इंटरटेनमेंट ने हाल ही में अपने प्रोग्राम 'एब्नॉर्मल समिट' में इसी सवाल पर एक शो किया.
शो में दो मुसलमानों ने शिरकत की जिनमें एक कोरियाई मूल की मुसलमान लड़की ओला थीं तो दूसरे पाकिस्तानी मूल के जाहिद हुसैन.
दोनों के सामने एक सवाल रखा गया, कोरिया में एक मुसलमान की जिंदगी कैसी है?
जाहिद बताते हैं कि इंटरनेट पर कुछ कॉमेंट्स देखकर उन्हें इस्लाम के बारे में लोगों का नजरिया देखकर काफी हैरत हुई।
"अगर आप हलाल गोश्त खाना चाहते हो तो अपने मुल्क जाओ। यहां पर क्या कर रहे हो, मैंने इस तरह के कई कॉमेंट्स देखे."
"कुछ अच्छे कॉमेंट्स भी थे. जैसे किसी ने लिखा कि सभी मुसलमान चरमपंथी नहीं होते लेकिन सभी चरमपंथी मुसलमान होते हैं। मुझे नहीं लगता कि वे इसे समझते भी हैं."
"मुझे लगता है कि जब लोग एक दूसरे की संस्कृतियों को समझने लगेंगे तो हालात बदलेंगे."
ओला बोरा सॉन्ग ने साल 2007 में ही इस्लाम को अपना लिया था। तब उनकी उम्र दस बरस थी। उन्हें इस बात का अफसोस है कि कोरिया लोगों और इस्लाम के बीच काफी दूरियां हैं। इन दूरियों की वजह से गलतफहमियां पैदा हुई हैं.
"रोजमर्रा की जिंदगी में मुसलमानों के बारे में जानने-समझने का मौका कम ही मिलता है क्योंकि कोरिया में मुसलमानों की संख्या कोई बहुत ज्यादा नहीं है."
"हम मुसलमानों के बारे में जो कुछ सुनते हैं, उसका जरिया अक्सर खबरें होती हैं, लेकिन मुसलमानों का खबरों में आना किसी दुर्घटना की वजह से होता है। और यही वजह है कि मुसलमानों के बारे में नकारात्मक छवि मजबूत होती चली जाती है."
"कोरियाई लोग इस्लाम को एक ऐसे धर्म के तौर पर देखते हैं जो महिलाओं को कमतर करके आंकता है, हिजाब के इस्तेमाल को बढ़ावा देता है."
जाहिद का कहना है कि इस्लाम की परिभाषा को कथित इस्लामिक संगठन के चरमपंथियों से जोड़ना ठीक नहीं है.
"चरमपंथ कोई देश नहीं है, कोई संस्कृति नहीं है और न ही कोई धर्म.बस कुछ लोग इसके जरिए पैसा कमा रहे हैं.
"चरमपंथ की परिभाषा भी राजनीतिक वजहों से बदल जाती है. ये परिभाषा इतनी लचीली है कि एक जैसी घटना कहीं पर 'टेरर' हो जाती है तो कहीं 'शूटिंग'."
(इनपुट: बीबीसी)