कृति सेनन आखिर कब तक मुगालते में रहेंगी!
कृति सेनन ने कम वक्त में बहुत कुछ पाया है. इंजीनियर बन जाने के बाद हीरोइन बनने के सफर पर निकलीं कृति ने 2014 में आई अपनी पहली फिल्म हीरोपंती के हिट हो जाने के दौरान साउथ की दो फिल्मों में भी काम किया और दूसरी ही हिंदी फिल्म दिलवाले में शाहरुख के साथ काम करने का मौका भी पाया. कुछ वक्त बाद वे ‘बरेली की बर्फी’ में भी नजर आएंगीं जिसे ‘निल बटे सन्नाटा’ वालीं अश्विनी तिवारी निर्देशित कर रही हैं. लेकिन संभावनाओं से भरा हुआ करियर होने के बावजूद, वे अपनी पिछली फ्लॉप फिल्म राब्ता को लेकर कुछ ज्यादा ही मुगालते में हैं!
कृति सेनन का दावा है कि राब्ता आम घिसी-पिटी कहानियों जैसी नहीं थी इसलिए शायद दर्शक उससे जुड़ नहीं पाए. यह भी कि उन्होंने और निर्देशक ने मिलकर एक अलग ही दुनिया के दर्शन दर्शकों को कराए लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि जब आप कुछ ‘अलग’ करते हो तो दर्शकों को वो पसंद नहीं आता. कृति यहीं रुक जाती तो बेहतर था लेकिन रौ में बहते-बहते वे इतना बहक गईं कि यह भी कह दिया कि राब्ता ने बतौर एक एक्टर भी उन्हें बदला है!
यही होती है सितारों की बनाई वो अलग दुनिया, जिसमें वे आत्ममुग्धता के दम पर राज करते हैं.
अब तो हर कोई मान लेगा कि भूमि पेडनेकर जिम में सबसे ज्यादा मेहनत करती हैं!
भूमि पेडनेकर के जलवे हैं! दम लगा के हइशा जैसी आलातरीन फिल्म से डेब्यू करने वाली यह अभिनेत्री वक्त की नब्ज पकड़ना बखूबी जानती है. इसलिए अक्षय कुमार के साथ वाली ‘टॉयलेट - एक प्रेम कथा’ के प्रमोशन के दौरान सुपरस्टार को खुश रखने के ऐसे प्रलोभन से घिर गईं कि कहने लगीं,‘यह फिल्म जैसे मेरी दूसरी ‘डेब्यू’ फिल्म है’. उन्हें शायद पता नहीं, लेकिन ऐसी विचित्र बात कहकर वे ‘दो’ डेब्यू फिल्मों वाली दुनिया की इकलौती हीरोइन जरूर बन गई हैं!
विचित्रता से उनकी यह दोस्ती यहीं खत्म हो जाती तो बेहतर था, लेकिन बात इतनी बढ़ गई कि कुछ दिनों बाद एक वातानुकूलित जिम तक पहुंच गई. हुआ यूं कि मुंबई के वर्सोवा स्थित जिस जिम में भूमि सालों से वर्जिश करती हैं, वहां उन्होंने एसी चालू रखना वर्जित कर दिया. उन्हें इस बात पर ऐतराज था कि जिम में दुनिया पसीना बहाने के लिए आती है, लेकिन 16 डिग्री तापमान पर सेट किया गया एसी अपनी ठंडक से कुछ बहने नहीं देता. इसलिए स्टारडम का उपयोग कर उन्होंने अपने एरिया का एसी बंद करवा दिया और पसीने ने हर मशीन के हत्थे पर खुद को चिपकाना शुरू कर दिया.
कुछ देर बाद ही भूमि की यह हरकत गर्मी से बेहाल एक महिला को नागवार गुजरी. जिम में तनातनी का माहौल बन गया और दमा पीड़ित महिला व भूमि के बीच इस बात को लेकर जोरदार बहस हो गई कि एक जिम मेम्बर की वजह से बाकी लोग क्यों तकलीफ उठाएं. जितना पसीना भूमि कसरत करके बहाने वाली थीं उससे ज्यादा पसीना मामला निपटाने में बह गया और बिना बुलाए जिम आ पहुंची इस मुसीबत के वक्त सिर्फ एक उपलब्धि ने भूमि को सहारा दिया. कि वे उस संवाद को बेहतरीन तरीके से बोल पाईं जिसे सर्वश्रेष्ठ तरीके से दिल्ली की सड़कों पर ही सुना जा सकता है –‘तुम जानती नहीं हो, मैं कौन हूं!’
‘मैं 18 साल की उम्र में सलमान खान से मिली थी और मेरे लिए यह उस उम्र की सबसे खूबसूरत याद है.’
— कैटरीना कैफ, फिल्म अभिनेत्री
फ्लैशबैक | किशोर कुमार के निर्देशन में बनी उस पहली फिल्म का किस्सा जिससे सत्यजीत रे भी प्रभावित थे!
किशोर कुमार ने कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया था. इन 12 फिल्मों में से कुछ कभी पूरी नहीं हुईं और कुछ गुमनामी के अंधेरे में खो गई. ‘बढ़ती का नाम दाढ़ी’ जैसी फिल्में - जिसे किशोर कुमार ने ‘ख्यालों की भेलपूरी’ कहा था – हास्य को पागलपन में सराबोर करने की वजह से कल्ट क्लासिक हुईं. तीन फिल्में ऐसी भी रहीं जो उन्होंने ट्रायलॉजी की तरह बनाईं, और इनमें से एक ऐसी जिसे देखकर न सिर्फ उस दौर के समीक्षक हैरान हुए बल्कि सत्यजीत रे ने भी कहा कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि किशोर ऐसी फिल्म भी बना सकता है.
वे बात ‘दूर गगन की छांव में’ (1964) नामक फिल्म की कर रहे थे, जो एक संजीदा फिल्म थी और परदे पर उछल-कूद करते हुए नजर आने वाले एक मसखरे हीरो के मिजाज के एकदम विलोम भी. युद्ध से वापस लौटे एक पिता द्वारा आवाज खो चुके अपने बेटे के इलाज के लिए दर-दर भटकने की इस दास्तान में किशोर कुमार ने गुरु दत्त और दिलीप कुमार जैसे अभिनेताओं की तरह ‘सीरियस’ अभिनय किया था.
उस वक्त उनका एक्टिंग करियर बुरे दौर से गुजर रहा था और उनके करीबी चाहते थे कि वे कोई मसाला या नाच-गाने वाली कॉमेडी फिल्म बनाकर अपने करियर को पटरी पर लाएं. लेकिन किशोर ने अपनी पहली निर्देशित फिल्म ही एक सीरियस फिल्म चुनी और तमाम विषमताओं से लोहा लेते हुए उसे इस कदर उम्दा बनाया कि ‘दूर गगन की छांव में’ 23 हफ्तों तक लगातार थियेटरों में चली.
कहते हैं कि शूटिंग के पहले दिन ही रोशनी पैदा करने वाले उपकरणों की कमी की वजह से दृश्यों को कार की हैडलाइट चालू कर शूट किया गया था. फिल्म को बनने में तीन साल लगे थे और रिलीज होने के एक हफ्ते तक थियेटर कम भरे रहते थे. लेकिन फिर समीक्षकों की सराहना और फिल्म देखकर प्रसन्नचित्त होकर लौटे दर्शकों द्वारा दूसरे लोगों को भी फिल्म देखने के लिए प्रेरित करने का सिलसिला ऐसा चल पड़ा कि फिल्म हाउसफुल रहने लगी. इसी दौरान, कहते हैं कि मुंबई के थियेटरों के बाहर किशोर कुमार कार में बैठकर पान खाते थे, और हाउसफुल का बोर्ड लग जाने के बाद ही घर जाते थे!
‘आ चल के तुझे मैं लेके चलूं’ नामक अमर गीत भी किशोर कुमार की इसी फिल्म की देन है. एक ऐसा नगमा, कि जब कभी पिता की उंगली थामे कोई छोटा बालक सड़क पर चलता हुआ नजर आता है, यही ख्याल आता है कि प्रकृति को पार्श्व में हमेशा यही गीत बजाना चाहिए.