लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी
लखनऊ।बसपा सुप्रीमो मायावती के जरिये छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी से हाथ मिलाने व मध्य प्रदेश में अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद यह साफ़ हो गया कि गठबंधन की राजनीति को ढाल बनाए विपक्ष को मोदी की भाजपा खतम करने में कामयाबी पर विराम लग सकता है। मायावती का दोनों राज्यों में विपक्ष की नीति से अलग जाना इसी ओर इशारा करता है कि यूपी में गठबंधन न होना भाजपा के लिये मुफ़ीद है. अब सवाल उठने लगा है कि महागठबंधन होगा या नही होगा. होगा तो उसका प्रारूप क्या होगा क्या बसपा के अनुरूप उसका प्रारूप होगा क्या सबकुछ मायावती ही तय करेगी कि कौन गठबंधन में होगा और कौन नही? किसको कितनी सीटें मिलेगी आदि.
अगर इस पर बारीकी से ग़ौर किया जाए तो सही भी है. बसपा के अलावा किसी दल पर मज़बूत और टिकाऊ वोट बैंक नही है. सबके पास ऐसा वोट बैंक है जो अपनी राजनीतिक उद्देश्य के लिए किसी दल के साथ भी जा सकता है. जैसे सपा कंपनी की बात करें तो उसका मूल वोट यादव जाति है, जो 2014 के आम चुनाव में हिन्दू बन गया था और वह भाजपा के पाले में चला गया था. उस चुनाव में उसके पास सिर्फ़ बन्धवा मज़दूर के तौर पर मुसलमान रह गया था.
इस बात की चर्चा 2014 में मिली करारी हार की समीक्षा बैठक में सपा कंपनी में मुलायम की मौजूदगी में सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान ने कही था, कि नेता जी अल्लाह का शुक्र है मुसलमान अपनी जगह सही रहा, पर यादव भाग गया. इस दलील का बैठक में किसी के पास कोई जवाब नही था, और मुलायम का सर शर्म से झुक गया था.
अब बात करते हैं कांग्रेस की, वह भी मुसलमानों को ही लेकर यक़ीन में है. उसका तर्क है लोकसभा में मुसलमान हमें ही पसंद करता है और हमें ही वोट देगा उसके पास भी ऐसा वोट नही दिखाई देता कि वह वोट बैंक उसके साथ खड़ा है. यह बात अलग है जो वोट मोदी की भाजपा से नाराज़ होकर बैक करेगा उसके चांस भी कांग्रेस में जाने के ज़्यादा होते हैं, क्योंकि और किसी दल पर वह यक़ीन नही कर पाता. एक सच्चाई यह भी है कि जो आज मोदी की भाजपा का वोट है वह कभी कांग्रेस का वोटबैंक हुआ करता था.
बस यही निष्कर्ष निकल कर आता है कि उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट न जीतने वाली बसपा सभी पर भारी पड़ रही है. रही बात पश्चिम उत्तर प्रदेश की एक जाति जाट उसकी भी एक पार्टी हुआ करती थी जो एक रणनीति के तहत मुलायम के बेटे अखिलेश यादव ने 2013 में जाटों और मुसलमानों के बीच झगड़े कराकर जाटों को मोदी की भाजपा में शिफ्ट करा दिया था जिसमें लाखों लोगों का आर्थिक व जानी नुक़सान हुआ था. सैकड़ों लोगों की जाने व कितनी ही बहन ओर बेटियों की आबरू लूटी गई थी.
आज भी जब उन दिनों की याद आती है तो पूरा शरीर काँप उठता है लेकिन यह इनके लिये मात्र गंदी राजनीति का हिस्सा भर था. यह यादव कंपनी का गेम प्लान था कि अजीत की सियासत खतम हो जाए जिसको खतम करने के लिए मुसलमान का इस्तेमाल किया गया. जिसपर मुझे एक मिसाल याद आ रही है कि इसकी बकरी मरनी चाहिए चाहे मेरी दिवार गिर जाए तो उसमें सपा कंपनी की सरकार सफल रही.
अजीत की सियासत क़िस्तों में सांसे गिन रही है. यह बात अलग है कि अब जब उसका सियासी गुना भाग किया गया तो ग़लती का अहसास हुआ अब उसे वहाँ से लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. सपा कंपनी ओर चौ0. अजीत सिंह के द्वारा जाटों को किसी तरह भाजपा से वापिस चौ0 के पाले में लाकर खड़ा कर दिया जाए, कैराना के उप चुनाव में यह प्रयास किये गए. कहने को तो यह कहा जा सकता है कि जाटों में घर वापसी की उम्मीदें बढ़ गई हैं. लेकिन सब दलों के साथ होने के बाद भी मोदी की भाजपा प्रत्याशी को भरपूर्व वोट मिला था जिस से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जाटों ने उस संख्या में घर वापसी नही की जिसकी सियासी दलों ने उम्मीद लगा रखी थी, पर हाँ! यह कहा जा सकता है कि उनकी घर वापसी हो सकती है.
इन सबसे निपटने के बाद मुलायम सिंह यादव के बुरे वक्तों के साथी भाई शिवपाल सिंह यादव भी अपनी बेइज़्ज़ती से तंग आकर अलग कंपनी बनाकर खड़े हो गए हैं. उसका क्या असर होगा या नही होगा यह कहना अभी जल्द बाज़ी होगा। कुल मिलाकर बसपा सबकी मजबूरी बन गई लगती है. अब यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि देश व प्रदेश की राजनीति किस करवट जा रही है? क्या साम्प्रदायिक ताकतें अपने मिशन में कामयाब होती है या सेक्युलर होने का मखोटा लगाए दल अपनी रणनीति को सफलता की और ले जाते है.
महागठबंधन को लेकर सपा के अस्तित्व का सवाल है न होने पर मुसलमान जो बँधवा मज़दूर की श्रेणी की तरह सपा के साथ गिना जाता है उसके भागने का अंदेशा सता रहा है. चाचा अलग राग अलाप रहे हैं. यही कहा जा सकता है कि महागठबंधन होना मुश्किल है.
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