बहुजन नायक, डॉक्टर A.J. फरीदी, जिन्हें 50 साल बाद याद कर रही है दुनिया
[डॉक्टर फरीदी जिन्होंने पेरियार को हिंदी पट्टी में साथ लाकर बहुजन राजनीति की आधारशिला रखी, तत्कालीन कोंग्रेस को हटाने के भारत के पहले महाज़ को संभव बनाया और संयुक्त विधायक दल की 1967 में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी और चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने, वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से नेता विरोधी दल (विधान परिषद, उत्तर प्रदेश) रहे और समाजवादी उसूलों पर मुस्लिम मजलिस का गठन किया, आज 19 मई 1974 उनकी यौम-ए-वफात का दिन है।]
लेखक: अमीक़ जामेई
डॉक्टर अब्दुल जलील फरीदी (14 दिसंबर,1913 - 12 मई,1974) जिस परिवार में पैदा हुए उनके पूर्वज सूफी फ़कीर हज़रत बाबा फरीदुद्दीन गंजशकर से ताल्लुक रखते थे जिनका ताल्लुक मुल्तान से था। हज़रत बाबा फरीदुद्दीन के खलीफा और उनके मानने वाले पुरे भारत में सूफी संत परम्परा के पैग़ाम लेके फ़ैल रहे थे, उसी सूफी विरासत को अपनाये उनका खानदान लखनऊ के नज़दीक संडीला में बस गए, उनके दादा खत्तात यानी कैलिग्राफी के माहिर थे और इनके पिता अब्दुल हक हैदराबाद रियासत में जज थे।
अब्दुल जलील फरीदी की पैदाइश 14 दिसंबर 1913 में हुई और इब्तेदाई तालीम लखनऊ के ला मार्ट से हुयी, अमिरुद्दौला इस्लामिया कॉलेज से 12वीं करने के बाद उनका दाखिला लखनऊ के किंग जोर्ज मेडिकल कोलेज में हुआ जहा से उन्होंने MBBS और MD किया, मेडिकल की दुनिया में एडवांस शिक्षा के लिए वोह इंग्लैंड और अमेरिका गए और D.T.M.&H.(लन्दन), T.D.A.(वेल्स) और F.C.C.P., F.A.A.T.P. (USA) में डिग्री हासिल की। मेडिकल क्षेत्र में उच्च शिक्षा लेने के बाद फरीदी भारत वापस आये और लखनऊ के हजरतगंज के नज़दीक (जहां अब फरीदी बिल्डिंग है) बैठते थे, बतौर टीबी डॉक्टर फरीदी की देश में ख्याति बढ़ने लगी, शोषित-वंचित समाज के प्रति हमदर्दी के कारण हर दिन वह 60-70 मरीज़ बगैर पैसे के देखते थे, फरीदी एक डॉक्टर ही नहीं एक बड़े समाज सुधारक और राजनीति में बदलाव लाने वाले इन्सान थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया, देश के बंटवारे के बाद उन्होंने देश की राजनीति में दिलचस्पी दिखाई, तब तक वो वर्ल्ड पीस कौंसिल में वामपंथियों के साथ सक्रिय थे, लखनऊ में जिसके नेता मौलाना इसहाक संभली (जमियत उलेमा के राष्ट्रीय सचिव व संभल से पूर्व सांसद) और नेहरु जी के अर्थव्यवस्था विंग के ज़िम्मेदार कम्युनिस्ट नेता बी ज़ेड अहमद थे। इस सोहबत में डॉक्टर फरीदी पर तरक्कीपसंद ख्यालात का असर देखा गया।
फरीदी ने आजाद भारत की राजनीति में तब भागीदारी लेना शुरु किया जब आज़ादी के बाद मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जाता था, उन्हें बतौर ISI एजेंट करार देना आसान था, एक ऐसा तमगा जो मुसलमानों के लिए श्राप बना हुआ था और भारत में रह रहे मुसलमानों को बंटवारे का ज़िम्मेदार सरकार से बताया जाता था और यह सब कांग्रेस के राज में हो रहा था। पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस शासित राज्य में उर्दू ज़बान को पाकिस्तान बनने के ज़िम्मेदार के साथ जोड कर देखा जा रहा था और इसीलिए सभी उर्दू होर्डिंग, कार्यालय के नाम हिंदी में किये जा रहे थे। दंगे अभी थमे नहीं थे, ऐसे में कोंग्रेस एक अजेय शक्ति की तरह मुसलमानों के सामने खड़ी थी। इस अन्याय और शोषण दमन को देखते हुए डॉक्टर फरीदी में कुछ बदल रहा था। इसी परिवेश ने मुसलमानों को समाजवाद की तरफ बढ़ने का रास्ता दिखाया और देखते-देखते 1967 में संयुक्त विधायक दल की तरफ उत्तर प्रदेश बढ़ने लगा जिसने हिंदी पट्टी में आने वाले दशकों के लिए समाजवादी और बहुजन धारा को जन्म दिया।
डॉक्टर फरीदी मानते थे की बंटवारे के बाद भारत में मुस्लिम नेतृत्व को झटका लगा था, भयावह दंगे और साम्प्रदायिक उन्माद के वातावरण में भारत में बसे मुसलमानों ने अपना कांफिडेंस बतौर नागरिक खो दिया है। भारत का संविधान बनने के बाद फरीदी की मंशा साफ़ थी कि मुसलमानों को भारत में इसी दस्तूर के तहत ज़िन्दगी को जीना है और जिनमे उनके सभी अधिकार सुरक्षित हैं। उनकी कोशिश थी कि मुसलमानों में खुदमुख्तारी व कांफिडेंस वापिस लायी जाये और देश भर में सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बने।
डॉक्टर फरीदी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत ही राजनीतिक पहाड़ के टकराव से हुयी। कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के दमन के दौर में उत्तरप्रदेश में जूनियर लौह पुरुष कहे जाने वाले कांग्रेस के सबसे चर्चित नेता चन्द्रभानु गुप्ता राजनीति के केंद्र में थे इसलिए फरीदी की निगाह में मुसलमानों के खिलाफ होने वाले हर ज़ुल्म-अन्याय गुस्से का केंद्र सी.बी. गुप्ता बने। डॉक्टर फरीदी समाजवादी धारा में जुड़े और खुलकर समाजवादियों के साथ देने लगे। लखनऊ में कभी जिनका सूरज ना डूबता हो ऐसे ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री चन्द्र भानु गुप्त को उन्होंने हराने की ठानी और लखनऊ से अपने साथी त्रिलोकी बाबू को सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जिताया और सीबी गुप्ता चुनाव हार गए। डॉक्टर फरीदी और चन्द्र भानु गुप्ता में राजनीति ठन गयी, इसके बाद चन्द्र भानु गुप्ता झाँसी के मौदहा विधानसभा से उपचुनाव लड़े जहां फिर से डॉक्टर फरीदी ने अपना कैम्प लगा दिया और मौदहा की रानी को समर्थन देकर प्रचार किया और अततः सीबी गुप्ता फिर एक बार उपचुनाव हार गए। इस घटना से कुछ सालों के लिए सी.बी. गुप्ता के राजनीतिक सफ़र का जैसे अंत हो गया हो।
डॉक्टर फरीदी उत्तर प्रदेश के ‘आल इण्डिया मजलिस ए मशावारत’ के अध्यक्ष बने। डॉक्टर फरीदी कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती देना चाहते थे इसलिए उन्होंने भारतीय क्रांति दल, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी के साथ मशवरात के 9 पॉइंट एजेंडे [उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी ज़बान का दर्जा, उर्दू विश्विद्यालय, उर्दू भाषा में 12वीं तक पढाई, अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा, सेल्फ डिफेन्स के लिए मुसलमानों को असलहे खरीदने का अधिकार, दंगो में मुसलमानों को उचित मुवावजा, आबादी के हिसाब से सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को हिस्सा, सरकारी संरक्षण में मस्जिदों को आज़ाद कराकर उन्हें आबाद करना, टेक्स्ट बुक में एंटी मुस्लिम रिमार्क को डिलीट करना] पर काम करने का मन बनाया जिसे राजनारायण और चौधरी चरण सिंह ने मान लिया और पूरा करने का आश्वासन दिया। मशावरात ने पूरी ताक़त लगाकर 171 विधानसभा और लोकसभा सीटों पर समर्थन दिया जिसमें मजलिस के समर्थन से 11 लोकसभा और 39 विधानसभा सीटें PSP, SP स्वतंत्रत पार्टी जीत गई और 1967 में मुसलमानों ने एकतरफा संयुक्त विधायक दल के गठबंधन को वोट किया जिसके चलते उत्तरप्रदेश में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और समाजवादियों को सत्ता में आने का मौक़ा मिला। चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने, इसी क्रम में बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मद्रास और केरल में कांग्रेस की सरकारें गिरनी शुरू हुयी और नॉन कांग्रेस अलायंस का दौर शुरू हुआ।
राजनीतिक उद्भव के बाद उन्होंने भारतीय मुस्लिम समाज को समाजवादी सांचे में ढालने के रास्ते पर बढे। वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता हो गए और उन्होंने विधान परिषद् का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। 12 साल वो विधान परिषद में नेता विरोधी दल रहे लेकिन उर्दू ज़बान के सवाल पर 1964 में रिजाइन कर दिया। 1965 में उन्होंने अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय को अल्पसंख्यक स्टेटस देने के सवाल पर लखनऊ में जेल काटी, इसके उपरांत फरीदी भारत के नक़्शे में एक कद्दावर मुस्लिम लीडर के बतौर उभरे। इससे पहले वो सिर्फ बतौर डॉक्टर और एक एमएलसी थे। विधान परिषद में उनका कार्यकाल 16 दिसम्बर से 6 मई, 1958 तक और 6 मई, 1958 से 6 मई,1964 तक रहा। विधान परिषद् में चुने गए इन दो टर्म में वो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से 12 अगस्त 1958 से 28 मार्च 1960 तक नेता विरोधी दल रहे।
डॉक्टर फरीदी केरल की इन्डियन यूनियन मुस्लिम लीग के निमंत्रण पर केरल गए जहां उन्हें लीग को उत्तर प्रदेश में बनाने के लिए कहा गया लेकिन फरीदी इससे कुछ बड़ा सोच रहे थे और वो हिंदी पट्टी में शोषित वर्गों को एकजुट करने में जुट गए। संयुक्त विधायक दल की सरकार से जल्द डॉक्टर फरीदी का मोहभंग हो गया था तब उन्होंने 3 जून 1968 में मुस्लिम मजलिस की बुनियाद डाली। जल्द ही 1969 चुनाव में मजलिस ने फेडरेशन अलायन्स [ मुस्लिम मजलिस-रिपब्लिकन पार्टी] बैनर पर ऊंट चुनाव चिन्ह पर 90 सीटों पर चुनाव लड़े, इस चुनाव में उन्हें भले ही बड़ी कामयाबी न मिली हो लेकिन उत्तर प्रदेश में कमज़ोर तबकों में एक जाग्रति देखी जाने लगी। इस चुनाव में रिपब्लिक पार्टी के 3 और मजलिस ने 2 विधानसभा सीटें जीती।
फरीदी ने जो राजनीतिक प्रोग्राम तय किया वो खांटी बहुजन 85% पर आधारित शोषित, पिछड़े, मुसलमान व अनुसूचित जातियों में राजनीतिक चेतना जगाकर उन्हें शोषण करने वालों के खिलाफ खड़ा करने का था। मुस्लिम मजलिस के कार्यक्रम में उन्होंने तय किया कि अहसास कमतरी के शिकार मुसलमानों की संगठित करना, मुसलमानों की ज़िन्दगी, आत्मसम्मान, संस्कृति, सभ्यता, भाषा, धार्मिक विश्वास के संरक्षण के लिए संघर्ष छेड़ना, मुसलमानों की राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, पिछड़ेपन को दूर करना, ऐसे समाज का निर्माण करना जिससे सभी कमज़ोर वर्ग आत्मसमान की ज़िन्दगी जी सके, अन्याय, गैरबराबरी, इम्तियाज़ धारणा पर आधारित सरकारी नीतियों का विरोध करना, गरीब और कमज़ोर तबको पर पूंजीपतियों द्वारा शोषण के विरूद्ध आवाज़ बनना। इन 8 बिन्दुओं पर बहुजन केन्द्रित राजनीत की उत्तर प्रदेश में शुरुआत हुयी। डॉक्टर फरीदी ने सीधे सीधे 85-15 का नारा दिया और कहा की 15% स्वर्ण हिंदुओ द्वारा एक बड़े तबके 85% शोषित वर्गों पर अन्याय और शोषण हुआ है।
इस विचार ने बहुजन आन्दोलन की नींव डाली और इसी साल डॉक्टर फरीदी ने आंध्र प्रदेश के समाज सुधारक श्याम सुन्दर, छेदीलाल साथी के साथ लखनऊ के बरदारी में 12-13 अक्टूबर 1968 को आल इण्डिया शेडूलड कास्ट, मायनोरिटीज़, बैकवर्ड क्लासेस व अन्य मायनोरिटीज़ कन्वेंशन बुलाया जिसकी अध्यक्षता के लिए दक्षिण के द्रविड़ क्रन्तिकारी नेता पेरियार ई वी रामासामी दो दिन के लिए लखनऊ आये। इस वक़्त पेरियार का जातिप्रथा के उन्मूलन के खिलाफ आन्दोलन चरम पर था। इस कार्यक्रम में भंते भदत आनंद कौसल्यायन शामिल हुए। डॉक्टर फरीदी और पेरियार ने नारा दिया “अकलियतों का नारा हिंदुस्तान हमारा”। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में प्रस्ताव पारित कर “द फेडरेशन ऑफ़ बैकवर्ड क्लासेस शेडूलद कास्ट्स एंड अदर मायनोरिटीस का गठन हुआ और बहुजन आन्दोलन के भविष्य के लिए 11 पॉइंट प्रोग्राम तय हुआ- शिक्षा पद्धति में बदलाव, इलेक्टोरल रिफार्म, वेलफेयर स्टेट का निर्माण, मुस्लिम पर्सनल लॉ का बचाव, मात्रभाषा का संरक्षण, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के उत्थान के लिए मंत्रालय का गठन, धार्मिक न्यास में सामाजिक बदलाव, पैरा मिलिट्री बल का पुनार्गठन हो, अल्पसंख्यकों को कोर्पोरेट एंटिटीज़ मानकर उन्हें अपने मामलों को निबटाने की स्वायत्तता दी जाए, अर्धसैनिक बलों के पुनर्निर्माण तथा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र और बिहार जैसे बड़े राज्यों को दो या अधिक राज्यों में विभाजित करने की मांग की। उन्होंने इस बात की वकालत की कि अल्पसंख्यकों को कॉर्पोरेट संस्थाओं के रूप में माना जाना चाहिए और उनके मामलों के संचालन के लिए उन्हें स्वायत्तता दी जानी चाहिए। अपनी उत्कृष्ट साझी हिंदुस्तानी संस्कृति के लिए जाना जाने वाला शहर लखनऊ में आयोजित इस सम्मेलन के मंच से "अकलियतों का का नारा हिंदुस्तान हमारा" नारे को एक स्वर में घोषणा की गई।
पेरियार ने कहा कि मैं शोषित अल्पसंख्यकों की महान भूमि को जगाने और एकजुट होने के लिए आह्वान करता हूं; मैं उन्हें चेतावनी देता हूं कि यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे एक-एक करके समूह दर समूह और समुदाय के समुदाय नष्ट कर दिए जाएंगे। आगे वो घोषणा करते हैं कि अनुसूचित वर्ग, पिछड़ा, मुसलमान एकजुट होकर वे बहुसंख्यक हो जाते हैं और उनका यह नैसर्गिक अधिकार है कि वो अपने इस जन्मभूमि के भविष्य का पथ प्रदर्शन करने में एक प्रभावी भूमिका निभाएं और मैं अपनी ओर से और अधिवेशन की ओर से हमारी मातृभूमि के प्रति गहरी आस्था एवं समर्पण व्यक्त करते हुए है समापन करता हूं कि 'अकलियतों का नारा हिंदुस्तान हमारा'। लखनऊ में वास्तव में यह दो दिवसीय आयोजन श्री कांशीराम द्वारा शुरू किए गए बहुजन आंदोलन का अग्रदूत था। इसी लखनऊ के कन्वेंशन से मान्यवर काशीराम के साथियों ने इस करार पर आगे बनने वाले बहुजन आन्दोलन की बृहद नीव पड़ी!
डॉक्टर फरीदी का लिखने-पढने में वक़्त गुज़रता था, वो लखनऊ से रोजनामा “क़ायद” उर्दू में निकालते रहे, मुस्लिम मजलिस के विचार, हिन्दू मुस्लिम यूनिटी, उर्दू ज़बान की तरक्की, अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय का मिशन आदि संबधी उनके ख्याल इसी में छपते रहे। उन्होंने आधा दर्ज़न किताबें, पम्फलेट छापी। उनकी किताब 'Communalism: Its Causes and Cure’ (1961) and ‘Communal Riots and National Integration' (1962). में उन्होंने साम्प्रदायिकता की जड़ में आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक वजहों को ढूँढा और कहा की दंगे सिर्फ और सिर्फ प्रशासन के फेल्योर से बढ़ते हैं। उन्होंने ऐसे संस्थानों के गठन की तरफ ध्यान दिलाया जहां राष्ट्रीय एकता पर सभी वर्ग की बैठक हो और समाज में सामंजस्य बनाने पर बातचीत हो। आगे चलकर देश में इसी परिकल्पना पर नेशनल इंटीग्रेशन कौंसिल की बुनियाद पड़ी।
डॉक्टर फरीदी ने राजनीतिक जीवन में गाँधी का प्रभाव देखा जा सकता है। उन्होंने शांति के तरीके से अपने मुद्दों को हल करने का तरीका लिया, अपने पम्फलेट “डेमोक्रेसी ऑर डायरेक्ट एक्शन 1965” में कहा कि “वर्तमान सरकार से न्याय प्राप्त करने के तरीके और साधन तैयार करने से पहले हमें महात्मा गांधी द्वारा अत्याचार और साम्राज्यवादी शोषण के खिलाफ शुरू किए गए आंदोलनों के लिए मार्गदर्शन की तलाश करनी चाहिए, जो सरल, शांतिपूर्ण और अहिंसक थे”। अपकी किताब प्रक्टिकल सोशालिस्म (1972) में उन्होंने सांप्रदायिक संगठनों की भर्त्सना करते कहा कि सिर्फ समाजवादी विचारधारा ही है जो इस्लाम से नज़दीक है, उन्होंने समाजवादी विचारधारा का विशलेषणत्मक अध्ययन किया और कहा कि- समाजवादी राज्य के सभी नागरिकों को समान अवसर और गरीबी को हटाने का लक्ष्य रखना चाहिए । इसके अलावा मानव ऊर्जा, समय और भोजन की बर्बादी से बचा जाना चाहिए। डॉ अब्दुल जलील फरीदी आगे चलकर इन्ही मूल्यों पर काम किया और इन आदर्शों पर खरा उतरे।
राजनीत में नैतिकता, विपक्ष से रिश्ते, द्वेष से कोसो दूर डॉक्टर फरीदी शराफत की मिसाल हैं। उनके कट्टर राजनीतिक दुश्मन जो बाद में उनके दोस्त बन चुके पूर्व मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्ता रेल में दिल्ली के लिए सफ़र कर रहे थे तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ा, उसी कम्पार्टमेंट के डॉक्टर फरीदी भी थे, पता लगते ही वो पहुँचे और ज़रूरी इलाज किया और दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराने गए। जल्द ही सी.बी. गुप्ता स्वस्थ हो गए, सीबी गुप्ता अपने दोस्तों को बताते थे कि डॉक्टर फरीदी ना उन्हें जीने देते हैं न मरने देते हैं।
अपने पेशे और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में उपलब्धियों के अलावा डॉ फरीदी को हमेशा सत्ता से टकराने वाले नेता के तौर पर, मुसलमानों और दलित व कमज़ोर वर्गों के हितों के लिए लड़ने वाले चैंपियन के रूप में याद किया जाएगा। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने इंसान की सेवा की और इंसानियत के आदर्शो पर चलते हुए यह समाजवादी सितारा 19 मई,1974 को हिंदी पट्टी में बेजुबानों की आँखों में किरण बिखेरता, कमज़ोर वर्गों में रीढ़ की हड्डी देता हुआ इतिहास के पन्नो में दब गया।
व्याख्या: यह लेखक के निजी विचार हैं। लेख प्रकाशित हो चुका है। कोई बदलाव नहीं किया गया है। वतन समाचार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। वतन समाचार सत्य या किसी भी प्रकार की किसी भी जानकारी के लिए जिम्मेदार नहीं है और न ही वतन समाचार किसी भी तरह से इसकी पुष्टि करता है।
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