रोज़ा जिस्म और आत्मा को पवित्र करता है।
लेखख: डॉ जहांगीर हसन मिस्बाही
रोज़ा जिस्म और आत्मा को पवित्र करता है।
लेखख: डॉ जहांगीर हसन मिस्बाही
रोजा,महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है जो बन्दे को अल्लाह से करीब करता है। रोजा, झूठ, गी़बत, चुग़ली, उत्पीड़न, हंगामा और लड़ाई-झगड़ा जैसी बातों से एक व्यक्ति को रोकता है और उस को पवित्र चीजों से जोड़े रखता है, और ये वह गुण हैं जो एक व्यक्ति को अल्लाह के करीब लाते हैं, और एक उपहार के रूप में अल्लाह स्वयं रोचे-दार को मिल जाता है। हदीस शरीफ़ में है: अल्लाह फरमाता है कि रोजा केवल मेरे लिए है और मैं स्वयं इसका उपहार दूंगा, क्योंकि बन्दा केवल मेरी खुशी के लिए अपनी इच्छा और खाना-पीना छोड़ देता है। (सहीह बुखारी, हदीस, न०: 7492)
यहाँ एक और बात समझने की है कि बन्दे का रोजा केवल अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए होना चाहिए, न कि दूसरों को दिखाने के लिए। अल्लाह को प्रसन्न करने का सबसे अच्छा तरीका है कि रोजा के दिनों में ज़िक्र (कथा) की सभाओं को बार-बार सजाया जाए और ज़िक्र के प्रकाश से अपने अंधेरे दिल को रौशन किया जाए। लेकिन अगर रोजे-दार ज़िक्र से लापरवाह है, दुनिया-दारी में लगा हुआ है, अल्लाह कोक याद नहीं करता तो ऐसे बन्दे के लिए चिंता की बात है, क्योंकि ऐसी सूरत में जाहिरी तौर पर रोजे का दायित्व तो पूरा हो जाएगा, लेकिन रोजे की जो हकीकत है कि अल्लाह से नजदीकी हासिल हो जाए वह हासिल नहीं होगी और इस प्रकार रोजा रखना कुछ खास लाभ न दे सकेगा।
जबकि रोजा रखने का असल मक़सद अल्लाह को प्रसन्न करना है और उसका क़रीबी होना है। इस के विपरित लापरवाह रोजे-दारों का उदाहरण बिल्कुल उन लोगों की इबादत की तरह है जो इबादत में जवाहिरी तौर पर लगे तो रहते हैं लेकिन उनका दिल और दिमाग ज़िक्र की लज्जत से वंचित या महरूम रह जाता है। वह अल्लाह के ज़िक्र का आनंद नहीं ले पाता है। ऐसौं के बारे में अल्लाह फरमाता है : धिक्कार है उन रोजे-दारों पर जो मानसिक और भावनात्मक रूप से अपनी इबादत से बेख़बर रहते हैं और जो केवल दिखावे के लिए इबादत करते हैं। (सुलह माऊन: 4-5)
इस से इशारा लेते हुए यह कहा जा सकता है कि रोजा रखने वालों के लिए यह बुरा है, जो ज़ाहिरी-रूप से अपना रोजा तो रखते हैं लेकिन रोजे की पवित्रता और लाभ से वंचित और महरूम रहते हैं।
नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है: रोजा रखने वाले को रोजे के दौरान गंदी अथवा अपमान-जनक बातें नहीं करनी चाहिए, और अगर कोई व्यक्ति उससे लड़ता है, तो उसे बताना चाहिए कि वह रोजा रखे हुआ है। (सहीह बुखारी, हदीस: 1786)
इस से दो बातें समझ में आती हैं:
1. एक यह कि अगर कोई रोजे-दार से लड़ने के लिए तैयार है, तो उससे कह दे कि मैं रोज-दार हूं, मुझसे मत लड़ो।
2. दूसरा यह कि अगर उस का दिल उस व्यक्ति से बदला लेने पर उकसाता है और वह बदला लेने की ताक़त भी रखता है तो वह अपने आप से कहे कि ऐ दिल! सावधान रहो, लड़ाई मत करो, क्योंकि लड़ाई करना रोजे-दार की गरिमा और शान के लायक़ नहीं है।
इस प्रकार की बुराईयों से बचने से लाभ ही लाभ है, वरना लड़ाई और झगड़ा से न बचने के दो नुकसान हो सकते हैं:
1. यह कि रोजा में खराबी आ जाती है।
2. अगर रोजा-रखने वाला व्यक्ति क्षमा और माफी जैसे पवित्र व्यवहार से वंचित या महरूम रह जाता है, जबकि उसे याद रखना चाहिए कि अल्लाह स्वयं क्षमा करने वाला है और क्षमा करने वालों को अपना मित्र बनाता है।
फिर अगर रोजा-रखने वाला व्यक्ति लड़ाई नहीं करता और क्षमा या माफी से काम लेता है तो इस से तीन प्रकार के लाभ होते हैं:
1. यह कि क्षमा कर देने के कारण उस पर अल्लाह की विषेश मेहरबानी और रहमत होती है।
2. यह कि क्षमा करने के कारण सामने वाले के दिल में कुछ न कुछ हमदर्दी का भाव या जज्बा उभरता है और उसके दिल में सहानुभूति पैदा होती है।
3. यह कि समाज भी युद्ध और भ्रष्टाचार की आग से सुरक्षित रहता है। और ये तीनों चीजें एक अच्छे समाज के लिए अनिवार्य हैं, ताकि हमारे समाज में धार्मिक और सामाजिक रूप से आपसी क्षमा और सहानुभूति का माहौल बना रहे और हमारे चारों तरफ अमन-व-शांति का वातावरण बना रहे।
इसके एलावा, अगर कोई व्यक्ति अपने रोजे को भूख और प्यास की कठिनाइयों तक ही सीमित कर लेता है और रोजे की पवित्रता को नहीं समझता है, उस की आवश्यकताओं का पालन नहीं करता है, उस के प्रकाश या नुर से लाभ प्राप्त नहीं करता है, और उस की वास्तविकता या हकीकत को भूल कर रोजे के केवल जाहिरी रूप को ही अपनाता है, तो वह निश्चित रूप से जान ले कि इस तरह से रोजा रखना, न रखने के बराबर है। बल्कि वह, उस भूखे-प्यासे व्यक्ति की तरह है जो भूख और प्यास की कठिनाइयों को तो सहता है, लेकिन उस कठिनाइयों को सहने के बावजूद उसे कोई पुरस्कार अथवा उपहार और सवाब नहीं मिलता है।
रोजे का एक महत्वपूर्ण पहलू और खास बात यह है कि जब कोई व्यक्ति भूखा-प्यासा होता है, तो उसे पता चलता है कि भूखे-प्यासे होने से किस तरह का दर्द और तकलीफ़ होती है। इसके कारण उस के दिल में गरीबों के लिए प्यार, सहानुभूति, हमदर्दी और उनके प्रति जिम्मेदारी का जज्बा पैदा होता है। जो अपनी गरीबी के कारण भूखे-प्यासे रहने पर मजबूर हैं और जिनके पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है, ग़रीबों की सहायता करने और उन का सहारा बनने का एहसास दिल में जागता है, और इस प्रकार रोजा रखने वाले का हृदय ग़रीब लोगों की सेवा की ओर आकर्षित होता है, जो न केवल धार्मिक स्तर पर लाभदायक होता है बल्कि समाजिक वातावरण को भी शांति और खुशियों से भर देता है।
इसलिए यह हम सब के लिए जरूरी है कि हम रोजा रखने के दौरान धार्मिक और सामाजिक दोनों स्तर पर पूरी ईमानदारी के साथ विशेष ध्यान दें। मतलब यह कि एक ओर झूठ, चुग़ली, लड़ाई और दंगा से बचते हुए रोजे की पवित्रता से अपने दिल को आबाद करें,
तो दूसरी ओर अपने आस-पास के जरूरतमंदों और भूकों की भी खबर-गीरी करें, ताकि उनकी जरूरतों को पूरा करके हम अपनी दुनिया को भी अच्छा बनाऐं और दुनिया से चले जाने के बाद कयामत में भी हमें कामयाबी मिल जाए।
(संपादक मासिक ख़िज़्रे-राह, इलाहाबाद)
व्याख्या: यह लेखक के निजी विचार हैं। लेख प्रकाशित हो चुका है। कोई बदलाव नहीं किया गया है। वतन समाचार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। वतन समाचार सत्य या किसी भी प्रकार की किसी भी जानकारी के लिए जिम्मेदार नहीं है और न ही वतन समाचार किसी भी तरह से इसकी पुष्टि करता है।
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