वे स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया- 17, अब्दुल मुत्तलिब मजूमदार
स्वतंत्रता सेनानियों की इस कड़ी में 17वां नाम अब्दुल मुत्तलिब मजूमदार का है-
अब्दुल मुत्तलिब मजूमदार -17
अब्दुल मुत्तलिब मजूमदार का जन्म 1 जून 1980 को दक्षिणी असम के एक बंगाली मुस्लिम परिवार में हुआ था। वह एक राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ धर्म और दर्शनशास्त्र के अच्छे जानकार भी थे। उन्होंने सन् 1921 में ढ़ाका विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की थी। इसके अलावा सन् 1924 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से वकालत भी की थी। उन्होंने 1925 में हैलाकांडी बार में वकालत का अभ्यास किया। बाद में वह सन् 1946 में विधायक और असम में केंद्रीय मंत्री भी बने। मजूमदार विभाजन का कड़ा विरोध करते थे।
ढ़ाका में एक विद्यार्थी होने के साथ वह खिलाफत आंदोलन में सम्मुखता से शामिल हुए। इसी समय वह कई बड़े नेताओं से मिले और महात्मा गांधी की विचारधारा के पक्के समर्थक बन गए। सन् 1925 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता लेली। मजूमदार हैलकंडी कांग्रेस कमेटी के सबसे पहले अध्यक्ष बनाये गए। 1939 में वह हैलकंडी टाउनशिप के पहले अध्यक्ष चुने गए, और 1945 में वह हैलकंडी लोकल बोर्ड के पहले भारतीय अध्यक्ष चुने गए थे।
1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग ने मुस्लिम प्रभुत्व इलाकों में ज़ोरदार प्रदर्शन किया। तभी मजूमदार ने लीग की विचारधारा के विरुद्ध जमीअत उलेमा ए हिन्द नामक संगठन की स्थापना की। यह कांग्रेस का एक सहायक संगठन था जिसमें बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी मुस्लमान शामिल हुए।
मजूमदार ने असम की सुरमा वैली जो की अब बांग्लादेश का हिस्सा है, में मुसलमानों को बड़ी तादाद में जमा करके उन्हें सम्बोधित किया था और उन्हें धर्म पर आधारित विभाजन के खतरनाक नतीजों से जागरूक भी किया था।
मजूमदार उन कुछ लोगों में से एक हैं जिन्होंने बराक वैली को भारत का अटूट हिस्सा बनाये रखने में सहायता की थी। अपनी पूरी ज़िन्दगी ख़ामोशी से भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द कायम रखने वाले और भारतीय स्वतंत्रता में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले मजूमदार सन् 1980 में इस दुनिया से अलविदा हो गए।
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