एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने आज एक नया जांच ब्यौरा (ब्रीफिंग) जारी करते हुए कहा कि फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा में, दिल्ली पुलिस के जवान न सिर्फ शामिल थे बल्कि उन्होंने इस हिंसा में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। इसके बावजूद, पिछले छह महीनों में दिल्ली पुलिस द्वारा - हिंसा के पहले, उसके दौरान और उसके बाद में - किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों में एक भी जांच नहीं शुरू की गयी है।
23 से 29 फरवरी 2020 के बीच दिल्ली के उत्तर-पूर्वी जिले में हुए दंगों में 50 से अधिक लोगों की जान चली गई, जिनमें से अधिकांश मुसलमान थे और 500 से अधिक घायल हुए। 50 दंगा पीड़ितों, चश्मदीद गवाहों, वकीलों, डॉक्टरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों से बात करने और उपयोगकर्ताओं द्वारा रिकॉर्ड करके सोशल मीडिया पर डाले गए वीडियो का विश्लेषण करने के बाद, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की इस नई ज़मीन-स्तरीय जाँच ने दंगे के दौरान दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों के एक चिंताजनक पैटर्न का दस्तावेजीकरण किया है। इन उल्लंघनों में दिल्ली पुलिस के अधिकारियों द्वारा दंगाइयों के साथ हिंसा में शामिल होना; हिरासत में कैदियों को प्रताड़ित करना; प्रदर्शनकारियों पर अत्यधिक बल का उपयोग करना; शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले विरोध स्थलों को तोड़ा जाना और दंगाइयों द्वारा की जा रही हिंसा को देखने के बावजूद मूकदर्शक बने रहना, शामिल है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कुमार ने कहा, “फरवरी में दिल्ली में हुए दंगों से प्रभावित लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में पहला कदम दिल्ली पुलिस को मिली उस दण्डमुक्ति को ख़त्म करना है, जो उन्हें जवाबदेह ठहराए जाने के आड़े आती है। छह महीने बाद भी, दिल्ली पुलिस की भूमिका की एक भी जांच नहीं हुई है। लगातार जारी यह राज्य-प्रायोजित दण्डमुक्ति, यह संदेश भेजती है कि कानून लागू करने वाले अधिकारियों को, गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन करने के बावजूद भी जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा। वे सभी क़ानूनों के परे हैं”।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया का यह जांच ब्यौरा दंगों से पहले की घटनाओं का दस्तावेज़ीकरण करता है, और इसमें भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा सहित अन्य राजनीतिक नेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषणों और दिल्ली में विश्वविद्यालय परिसरों में पुलिस की बर्बरता का घटनाक्रम भी प्रस्तुत किया गया है। इसके बाद, हुए दंगों को रोकने की दिशा में दिल्ली पुलिस की अपर्याप्त प्रतिक्रिया और हिंसा में उनकी सक्रिय भागीदारी का भी दस्तावेजीकरण किया गया। इसमें पीड़ितों को चिकित्सा सेवाओं से वंचित करना, हिंसा में भागीदारी, प्रदर्शनकारियों पर बल का अत्यधिक और मनमाना इस्तेमाल और प्रदर्शनों के प्रति पक्षपात शामिल है। ब्यौरे में आगे, हिंसा के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा दंगा पीड़ितों और हिरासत में लिए गए लोगो के साथ यातना और दुर्व्यवहार का और फिर दंगा पीड़ितों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को उत्पीड़ित करने और डराये-धमकाये जाने का एक साफ़ पैटर्न दर्शाया गया है। उपयोगकर्ताओं द्वारा सोशल मीडिया पर डाले गए वीडियो में देखे जाने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों के सबूतों की विश्वसनीयता की पुष्टि करने के लिए, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने एमनेस्टी इंटरनेशनल की क्राइसिस एविडेंस (संकट साक्ष्य) लैब का सहयोग लिया। यह लैब अत्याधुनिक, ओपन-सोर्स और डिजिटल जांच उपकरणों के ज़रिये, गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों का विश्लेषण और उनकी पुष्टि करने का काम करती है। क्राइसिस एविडेंस लैब ने वीडियो के समय, तिथि और स्थान की पुष्टि करके इन वीडियो को प्रमाणित किया। इसके अलावा, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने उन स्थानों का दौरा किया जहाँ यह वीडियो रिकॉर्ड किए गए थे और वहाँ मौजूद चश्मदीद गवाहों और पीड़ितों से भी बात की।
एमनेस्टी इंटरनेशनल की क्राइसिस एविडेंस लैब द्वारा किये गए विश्लेषण में शामिल कई वीडियो में से एक वीडियो में, दिल्ली पुलिस अधिकारियों को 24 फरवरी के दिन, पांच घायल लोगों को लात मारते और पीटते हुए, उन्हें राइफलों से कोंचते हुए और भारत के राष्ट्रगान को गाने के लिए कहते हुए देखा जा सकता है। वीडियो के रिकॉर्ड किये जाने के बाद, पांचों लोगों को पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिया गया। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने वीडियो फुटेज का विश्लेषण करने के अलावा, वीडियो में मौजूद पुरुषों में से एक, 26 वर्षीय फैज़ान की माँ से भी बात की। फैज़ान की माँ, किस्मतून ने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया को बताया कि उन्होंने यह वीडियो कई बार देखा था, लेकिन उन्हें बहुत बाद में इसका अहसास हुए कि उनका बेटा भी वीडियो में है। उन्होंने कहा “मैं अपने बेटे की तस्वीर अपने साथ ले कर पुलिस स्टेशन गयी। मैंने उन्हें यह तस्वीर दिखाई और पूछा कि क्या मेरा बेटा वहाँ है, और उन्होंने हाँ में जवाब दिया। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे मुझे उसे देखने देंगे और क्या वे उसे रिहा करेंगे। पुलिस वालों ने इंकार कर दिया। लेकिन मैंने रात के 1 बजे तक वहाँ इंतजार किया”।
फैज़ान को पुलिस ने बिना किसी आरोप के करीब 36 घंटे तक हिरासत में रखा। उसकी हालत बिगड़ने पर उसे उसकी माँ को सौंप दिया गया। पुलिस ने, फैज़ान को हिरासत में रखे जाने से जुड़े दस्तावेज़ों को उसके परिवार को देने से भी इनकार कर दिया।
गंभीर रूप से घायल इन पाँच पुरुषों के साथ दिल्ली पुलिस द्वारा किया गया निर्मम व्यवहार, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन करता है जिनके तहत बल के उपयोग की अनुमति सिर्फ अंतिम विकल्प के रूप में दी गयी है, और उसी मात्रा और अनुपात में जो इस तरह के उपयोग के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। यह नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय करार (ICCPR) के अनुच्छेद 9 का भी उल्लंघन है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं।
दिल्ली पुलिस ने भारतीय क़ानूनों के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन न करके, घरेलू क़ानूनों का भी उल्लंघन किया है। 1997 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने डी.के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार (1997) के मामले में हिरासत में दुर्व्यवहार और यातना को रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किये थे। इन्हें उसके बाद से दंड प्रक्रिया संहिता में शामिल किया गया है। इन दिशा-निर्देश और दंड प्रक्रिया संहिता की विविध धाराओं के तहत, हिरासत में लेते वक़्त पुलिस द्वारा गिरफ्तारी का मेमो तैयार किया जाना चाहिए, जिसपर गिरफ्तारी की तारीख और समय के साथ साथ एक स्वतंत्र गवाह के हस्ताक्षर और गिरफ्तार किये गए व्यक्ति के प्रति-हस्ताक्षर होने चाहियें। इनके तहत यह भी निर्धारित किया गया है कि परिवार के किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी की और हिरासत में रखे जाने की जगह की सूचना दी जानी चाहिए और हिरासत में लिए जाने के बाद, गिरफ्तार व्यक्तियों की चिकित्सीय जांच की जानी चाहिए। इनके अंतर्गत, पुलिस को गिरफ़्तारी के 24 घंटे के अंदर हर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने की भी आवश्यकता होती है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने दंगों के पूर्व-घटनाक्रम में भड़काऊ भाषण देने वाले राजनेताओं की भूमिका का भी विश्लेषण किया। उदाहरण के तौर पर, 23 फरवरी को, भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के खिलाफ एक रैली का नेतृत्व करते हुए दिल्ली पुलिस को प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए तीन दिन का अल्टीमेटम दिया, जिसे लाइव दिखाया गया। कपिल मिश्रा के भाषण के तुरंत बाद, दिल्ली में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गई, लेकिन अभी तक किसी भी राजनेता के खिलाफ कोई भी मामला दर्ज नहीं किया गया है।
“एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया गृह मंत्रालय से माँग करता है कि दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों के सभी आरोपों और राजनीतिक नेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषणों की त्वरित, विस्तृत, पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए। दिल्ली में, पिछले चार दशकों के दौरान दो बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ हुई हैं: 2020 के दंगे और 1984 का सिख नरसंहार। दोनों हिंसक घटनाओं के बीच एक साझा कड़ी है - दिल्ली पुलिस द्वारा हिंसा के दौरान किए गए मानवाधिकार उल्लंघन। इस तरह के उल्लंघनों की पुनरावृत्ति, दण्डमुक्ति के माहौल की ओर इशारा करती है। दण्डमुक्ति का यह माहौल, अपने भाषणों में हिंसा की वकालत करने वाले राजनेताओं और हिंसा को रोकने में नाकाम रहने वाली पुलिस को यह संदेश भेजता है कि गहन मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए, भविष्य में भी उन्हें ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा। पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों को न्याय दिलाने के लिए इस दण्डमुक्ति को ख़त्म किये जाने की ज़रुरत है और इसे ख़त्म किया जाना ही चाहिए,” अविनाश कुमार ने कहा।
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