बीते कुछ सालों में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने धर्म के आधार पर चुनाव लड़ने की प्रक्रिया में तेज़ी शुरू की है अब वह उसमें खुद फंसती जा रही है. बिहार विधानसभा के चुनाव हों या उत्तर प्रदेश विधानसभा के या फिर लोकसभा के चुनाव जिस तरह से धर्म के आधार पर वोटरों को बांटने का प्रयास हुआ और बजरंगबली और अली के नाम पर लोगों को विभाजित करने की कोशिश की गई, कहा गया कि अगर विरोधी दल जीत जाएंगे तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे और श्मशान व कब्रिस्तान के नाम पर जिस तरह से लोगों को बांटने का प्रयास हुआ अब उसमें भारतीय जनता पार्टी पहली बार फंसती नजर आ रही है.
किसान आंदोलन में न तो हिंदू मुस्लिम का ऐंगल है, ना शमशान और क़ब्रिस्तान का, न ही अली और बजरंगबली का मुद्दा है, न पकिस्तान का एंगेल और ना ही किसी और धर्म का. यह सीधे-सीधे देश के अन्नदाता Vs सरकार और बीजेपी है, और खुद किसान इस आंदोलन को लीड कर रहे हैं और बड़ी बात यह है कि इसमें सामने से कोई राजनीतिक दल भी नजर नहीं आ रहा है. जिस से भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें और बढ़ती जा रही हैं.
पहले इस मूवमेंट को खालिस्तानी और किसानों को भ्रमित करने वाला मूवमेंट बताया गया और कहा गया कि इसको खालिस्तानी लोगों का समर्थन हासिल है और जिस तरह से इस मूवमेंट को बदनाम करने की कोशिश की गई अब बात उससे भी आगे बढ़ चुकी है और यह कार्ड भी फेल हो चुका है. सवाल उठ रहा है कि अगर वह खालिस्तानी लोग थे तो फिर सरकार ने उनसे बातचीत के लिए एक दो नहीं बल्कि 5 6 दौर की मीटिंग क्यों की? जिससे यह बात समझ में आती है कि सरकार किसानों के आगे पूरी तरह से बेबस है और भारतीय जनता पार्टी इसमें कोई धर्म का एंगल ढूंढ पाने में अब तक विफल रही है.
बीजेपी के सामने यह पहला ऐसा प्रश्न आया है जो धर्म के आधार पर तैयार किए गए उसके अपने सिलेबस से बाहर का है. क्योंकि धर्म के आधार पर भाजपा के मेनिफेस्टो में हिंदू और मुसलमान ही नजर आते हैं और खुलकर के भारतीय जनता पार्टी के नेता हिंदू और मुसलमानों के नाम पर लोगों को विभाजित करने की कोशिश करते हैं.
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार नहीं अनेकों बार धर्म के आधार पर विभाजन करने की बातों को विराम लगाने का संदेश दिया लेकिन इसके बावजूद अली और बजरंगबली श्मशान और कब्रिस्तान व पाकिस्तान में पटाखे फोड़ने वाले शब्द लगातार चुनाव में तीर की तरह भारतीय जनता पार्टी की ओर से फेंके जाते रहे. अब जबकि पहली बार हिंदू मुस्लिम के सिलेबस से बाहर का प्रश्न आ गया है जिसमें सरदार भी हैं जो असरदार भी नजर आ रहे हैं और किसान भी हैं जो देश के अन्नदाता हैं, जिन की वकालत विपक्ष में रहते हुए भाजपा के नेता अक्सर करते मिल जाएंगे. खुद पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री और मौजूदा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का किसानों से प्रेम जगजाहिर है जो देश के कृषि मंत्री भी रह चुके हैं, जिस का उत्तर अब तक बीजेपी के पास नहीं है.
इस लिए पहले तो इस मूवमेंट को खालिस्तानी बताकर बदनाम करने की कोशिश की गई और रोगी मीडिया ने इस में पूरा किरदार निभाया. यही वजह है कि जब रोगी मीडिया के लोग किसान आंदोलन कवर करने पहुंचे तो किसानों ने उन से बात करना भी गवारा नहीं किया और रोगी मीडिया के कुछ लोग हाथ जोड़ करके माफी भी किसानों से मांगते नजर आए. अब ऐसे में जब प्रश्न सिलेबस से बाहर का आ गया है तो भारतीय जनता पार्टी के हाथ-पांव फूल रहे हैं कि इस प्रश्न का उत्तर कहां से ढूंढा जाए और कैसे इस समस्या का समाधान किया जाए.
क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के नेता और सरकार के लोग शुरू में इस किसानों के लिए लाए गए तीनों बिल जो अब कानून की शक्ल ले चुके हैं, उन्हें किसानों के फायदे का सौदा बताते रहे लेकिन जब किसान उसको समझने के लिए तैयार नहीं हुआ और किसान ने सीधे-सीधे कह दिया कि यह क़ानून उसके पेट पर हमला है और उस के खेत को गिरवी रखने का प्रयास है और जब सरकार की तरफ से सारी दलील विफल हो गई और किसान आंदोलन हर रोज नई उड़ान छूता नज़र आ रहा है तो अब ऐसे में सरकार के सामने कोई चारा नजर नहीं आ रहा है.
आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी धर्म के आधार पर तैयार किये गए अपने सिलेबस से बहार से आये प्रश्न का उत्तर कैसे ढूंढती है यह देखना दिलचस्प होगा.
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