डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश में इतना बड़ा किसान आंदोलन शायद पहले कभी नहीं हुआ, जितना बड़ा कई राज्यों में 1 जून से शुरु हुआ है। यह 10 जून तक चलेगा। आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं कि किसानों को उनकी लागत से डेढ़ा याने 50 प्रतिशत फायदा तो मिलना ही चाहिए। उन्हें बीज, पानी, जुताई, फसल बीमा और बिक्री की सुविधाएं भी मिलनी चाहिए।
उनकी कर्ज माफी भी होनी चाहिए। किसानों के ये सब मांगें जायज मालूम पड़ती हैं और सरकारों को इन पर गंभीरता से विचार करना चाहिए लेकिन किसान नेताओं को व्यावहारिक भी होना पड़ेगा। मध्यप्रदेश की शिवराज चौहान सरकार और महाराष्ट्र की फड़नवीस सरकार ने किसानों के लिए अनेक सुविधाएं दी हैं।
उनके प्रति इन किसान संगठनों को आभारी होना चाहिए लेकिन ज़रा वे इस बात पर भी ध्यान दें कि कर्नाटक की सरकार किसानों की कर्जमाफी के सवाल पर कितनी मुसीबत में फंस गई है। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने 24 घंटे में कर्जमाफी की घोषणा की थी लेकिन वे अब 15 दिन का समय मांग रहे हैं।
यदि वे 73000 करोड़ रु. का किसानों का कर्ज माफ कर देंगे तो कर्नाटक का आधा बजट खत्म हो जाएगा। यह समस्या सभी प्रदेशों में है। यों भी किसानों के स्वाभिमान की रक्षा और उन्हें राहत देने की नीति साथ-साथ चलनी चाहिए। आज देश में किसानों की जितनी दुर्दशा है, किसी अन्य वर्ग की नहीं है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के किसानों की औसत आय मुश्किल से 100 रु. रोज है।
छुट्टियों और बीमारी के दिन घटा दें तो उसे साल भर में 50 रु. रोज़ भी नहीं मिलते। इससे कहीं ज्यादा रुपए तो शहर के भिखारी रोज़ इकट्ठे कर लेते हैं। अपनी फसलों से किसानों को जितना फायदा होता है, उससे दुगुना-चौगुना बिचौलियों को होता है।
इस पर नियंत्रण की जरुरत है। देश में दाम बांधो नीति सख्ती से लागू की जानी चाहिए लेकिन किसान संगठन जिस दुराग्रह के साथ सब्जियों और दूध को फिंकवा रहे हैं, उसके कारण आम जनता की सहानुभूति के खोए जाने का डर है। इस आंदोलन को भाजपा-विरोधी बनाना भी बुद्धिमत्तापूर्ण कदम नहीं कहा जा सकता। किसानों की मांगें इतनी सही हैं कि उन्हें भाजपा क्या, सभी पार्टियों का समर्थन जुटाना चाहिए।
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