मोहम्मद अहमद (एडिटर वतन समाचार) मोबाइल नंबर: 09711337827 EMAIL:_ watansamachar@gmail.com
नयी दिल्ली: इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. 6 जनवरी 2019 को चुनाव के लिए वोटिंग होगी और 7 जनवरी को नतीजों के आने की संभावना है, लेकिन इस बीच इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर के चुनाव को जिस हाईप पर ले जाया जा रहा है उससे कहीं ना कहीं इस्लामिक कल्चर सेंटर के अज़ीम मसीहा हकीम अब्दुल हमीद, जस्टिस हिदायतुल्लाह, चैधरी आरिफ समेत अनेकों की रूह तड़प रही होगी, कहीं ना कहीं मूसा रजा साहब तनहाइयों में बैठकर ये सोच रहे होंगे कि क्या इसीलिए हम सभों ने इतनी बड़ी कुर्बानियां दी थीं कि इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर के चुनाव को लंच डिनर यानी बिरयानी और क़ोरमे तक महदूद रख दिया जाए.
इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर इस वक्त पूरी तरह से 2 धड़ों में बट चुका है. एक धड़ा वह है जो यह कह रहा है कि अगर वह चला गया तो सेंटर यतीम हो जाएगा, इसलिए सेंटर की आबरू की हिफाजत की जाए और उसे ही वोट दिया जाये. दूसरा धड़ा इस बात का इकरार कर रहा है कि पिछले 15 सालों में इस्लामिक सेंटर के मेमोरेंडम आफ एसोसिएशन को न पढ़कर के उसने तारीखी गलती कि है इसलिए जब जागे तभी सवेरा. अगर उसको मौका मिला तो वह हकीम साहब जस्टिस साहब के ख्वाबों की ताबीर मूसा रजा की आंखों के सामने पेश करेगा.
लेकिन इस बीच एक अहम सवाल यह है कि जिस तरह से इस्लामिक सेंटर के चुनाव को कीमा कोरमा बिरयानी मटर पुलाव तक समेट दिया गया है और सैकड़ों लोगों को दावत देकर एक दूसरे की ग़ीबत की जाती है और इन सब के दरमियान सेंटर की आबरू की हिफाजत के लिए वोट मांगा जाता है, क्या इसी का ख्वाब हमारे पूर्वजों में देखा था, कि साहब को खुश करने के लिए साहब की नजरों में बने रहने के लिए लाखों रुपए बर्बाद कर दिए जाएं.
एक अंदाज़े के मुताबिक इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर के चुनाव में सिर्फ मेंबरों की तरफ से कम से कम 4 से 5 करोड रुपए खर्च हो जाएंगे. अगर यह बात सच है तो यह रोंगटे खड़े कर देने वाला तखमीना है, क्या इस्लामिक सेंटर के सदस्य इस पैसे का सदुपयोग नहीं कर सकते थे? क्या यह लोग एलान नहीं कर सकते थे कि जो सदस्य या जो प्रत्याशी दावत करेगा उसका बाईकाट किया जाएगा और वोट उसे नहीं दिया जाएगा? क्या इस्लाम सेंटर की दीवार से सटे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से सबक नहीं लिया जा सकता था? एक तरफ जहां इस तरह के प्रचार पर प्रतिबंध है और दूसरी तरफ आलम यह है कि बिरयानी और क़ोरमे से नीचे बात नहीं होती है.
आलम तो यह है कि जो लोग क़ोरमे का इंतजाम नहीं करते उनसे दूसरे सदस्य कहते हैं कि ऐसे इलेक्शन लड़ा जाएगा? आप सोचिएगा कि कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए? सदस्यों को तनहाई में गौर करना चाहिए और कोई ऐसा कंक्रीट प्लान तैयार करना चाहिए जिस से आने वाली नस्लें सीख लें.
उसी तरह जैस सर सय्यद के नाम को डिनर तक महदूद कर दिया गया है और अब तो जामिया के ओल्ड बॉयज भी जौहर डिनर का आयोजन करने लगे हैं. इस से पहले कि हम दलदल में जाएं हमें सोचना होगा कि क्या इन लोगों का सपना सूट बूट वालों का पेट भरना था या इन के ख़्वाबों को पूरा करने के लिए गरीबों को शिक्षा और रोज़गार दिलाना था.
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