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वे स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया- 27, महमूद हसन देवबंदी

महमूद हसन देवबंदी का जन्म सन् 1851 में बरेली के एक शहर में हुआ था। वह एक मशहूर सुन्नी मुस्लिम विद्वान थे, जिन्होंने सक्रियता से ब्रिटिश सरकार के विरोध में काम किया। महमूद हसन ने अपनी शिक्षा मदरसा दारूल उलूम देवबंद से प्राप्त की और फिर सन् 1890 में उसी मदरसे के प्रधानचार्य भी नियुक्त किये गए।

By: वतन समाचार डेस्क
Freedom fighter Mahmud Hasan Deobandi

वे स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया- 27, महमूद हसन देवबंदी


स्वतंत्रता सेनानियों की इस कड़ी में 27वां नाम महमूद हसन देवबंदी का है-

 

महमूद हसन देवबंदी -27

महमूद हसन देवबंदी का जन्म सन् 1851 में बरेली के एक शहर में हुआ था। वह एक मशहूर सुन्नी मुस्लिम विद्वान थे, जिन्होंने सक्रियता से ब्रिटिश सरकार के विरोध में काम किया। महमूद हसन ने अपनी शिक्षा मदरसा दारूल उलूम देवबंद से प्राप्त की और फिर सन् 1890 में उसी मदरसे के प्रधानचार्य भी नियुक्त किये गए।

 

उन्होंने रेशमी रुमाल आंदोलन (silk letter movement) शुरू किया, जिसमें रणनीति, हथियार और गोला-बारूद से संबंधित जानकारी, स्वयंसेवकों की भर्ती की योजना और प्रशिक्षण का आदान-प्रदान महमूद हसन व अन्य देवबंदी नेताओं के बीच रेशमी कपड़े के टुकड़ों पर लिख कर किया जाता था। उनका मकसद रेशमी कपड़े से ब्रिटिश शासन को गिराना और उनका गला घोंटना था। हसन के इस पूर्ण सशस्त्र प्रतिरोध में उनके जैसे विचार रखने वाले नौजवान बड़ी संख्या में शामिल हुए, और इस प्रतिरोध को अंतराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन प्राप्त हुआ। यह विरोध जिसे कि भुला दिया गया और पूर्वाग्रहों के ढ़ेर तले दफना दिया गया, वह एक धर्मनिरपेक्ष और सात सालों तक उलेमा के द्वारा संचालित आंदोलन था। बाद में हसन को सन 1916 में सऊदी अरब के हिजाज़ शहर में गिरफ्तार कर लिया गया, और उन्हें माल्टा की जेल में तकरीबन तीन साल चार महीने तक सजा काटनी पड़ी, और ब्रिटिश सरकार ने उनका आंदोलन भी समाप्त कर दिया। हसन को सन् 1920 में जेल से रिहा किया गया।

 

महमूद हसन देवबंदी स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रतिक बने और उन्हें खिलाफत कमेटी ने सन 1920 में शेख उल हिन्द का लकब दिया। महात्मा गांधी का समर्थन करते हुए उन्होंने एक फतवा जारी किया था जिसमें हर भारतीय मुस्लमान को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का हुक्म दिया गया था।

 

हसन ने 29 अक्टूबर 1920 में अलीगढ़ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की बुनियाद भी रखी थी। इसके एक महीने बाद 30 नवंबर 1920 को स्वतंत्रता का यह प्रतिक इस दुनिया को अलविदा कह गया।

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