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यह कहना कि अवाम एकजुट नहीं है और ...बिल्कुल ग़लत है

आज़दी के बाद कांग्रेस का राज रहा और मुसलमान आंखें बन्द करके कांग्रेस को वोट करते रहे। बाबरी मस्जिद का ताला खुलने और मंदिर का शिलान्यास करने के बाद विभिन्न सेक्यूलर पाट्रियों ने जन्म लिया और मुसलमानों की मसीहाई का दावा किया। मुसलमानों की मिल्ली क़यादत कभी किसी को, कभी किसी को वोट दिलवाती रही। मुसलमानों को हर कोई यह नसीहत करता रहा कि बु़िद्ध और विवेक से वोट डालना वरना फ़ाशिज्‍म आ जाएगा। मुसलमान अपने विवेक से वोट करके मुलायम, माया, लालू और ममता को कुर्सी पर बैठाता रहा लेकिन नतीजा क्या निकला? आज सारा देश भगवा रंग में है। मुसलमान और सरकार में मानो दुश्मनी का रिश्ता है। इसके बजाए अगर आजादी के बाद अपनी सियासी क़यादत बनाई गई होती तो कम से कम मिल्लत के आंसू पोंछने वाला तो रहता। अभी भी समय है कि केरला में मुस्लिम लीग, आसाम में ए.आई.यू.डी.एफ और तेलंगाना में ए.आई.एम.आई.एम को मज़बूत किया जाए। उसी के साथ दूसरे राज्यों में भी अपनी क़यादत पैदा की जाए। मॅाब लिंचिंग का एक हल यह भी है।

By: Administrators
कलीमुल हफीज कंवीनर, इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फोरम

कलीमुल हफीज कंवीनर, इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फोरम

 

पिछले पांच साल में मॅाब लिंचिंग की सैकड़ों घटनाएं हो चुकी हैं। जिनमें लगभग 300 लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं। दो चार को छोड़कर बाक़ी में मुसलमान ही उसका शिकार हुए हैं। एक घटना होती है, कुछ शोर सुनाई देता है, फिर खामाशी छा जाती है, फिर दूसरी घटना हो जाती है। यह घटनाएं गाय के नाम पर शुरू हुई थीं। आज चोरी के इलज़ाम तक पहुच गई हैं। इसका मतलब यह है कि अब देश में अदालतें और पुलिस सज़ाएं नहीं देंगी बल्कि खुद अवाम सज़ा देगी और वह भी सज़ाए मौत। अब किसी को भी अकेला पाकर उस पर कोई भी इलज़ाम लगाकर लोग मारने लगेंगे और इतना मारेंगे कि वह मर जाएगा। ज़रा सोचिए, अगर यही सिलसिला चल निकला और इसे रोका ना गया तो देश का क्या होगा? यह ज़रूरी तो नहीं कि हर जगह मुसलमान अल्पसंख्या में हों। हमारें यहां बहुत से गांव और शहरों में हिन्दू और मुसलमानमें की मिलीजुली आबादियां हैं। कहीं आबादी का प्रतिशत कम ज्यादा है। शहरों में तो नहीं मगर देहात में कहीं केवल हिन्दू है और कहीं मुसलमान। यह तो अच्छा है कि अभी मुसलमान धैर्य और संयम से काम ले रहा है। लेकिन जब ज़ुल्म हद से बढ़ जाता है तो फिर धैर्य का बंध टूट जाता हैं और किसी का बदला किसी से लेना शुरू कर दिया जाता है।

मॅाब लिंचिंग को अंजाम देने वाले नासमझ, बेवकूफ़ और जाहिल नहीं हैं] बल्कि वह समझदार हैं। उनका संबंध बी.जे.पी, शिवसेना और बजरंग दल से है। उनके गले में “गेरूआ गमछा”  इसका प्रतीक है। इसका मतलब है यह घटनाएं कोई हादसा नहीं हैं कि अचानक और अनजाने में हो जाते हों। बल्कि यह सिलसिला आर.एस.एस की उस पॅालीसी का हिस्सा है जिसके अंतर्गत मुसलमानों को भयभीत करके घुटने टेकने, घर वापसी करने और गुलामी स्वीकार करने पर मजबूर किया जा सके और इस तरह हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार किया जा सके। उन गुण्डों की कमर पे उनके धर्म गुरूओं का हाथ है और उनको इनके सियासी आक़ओं की पनाह हासिल है।

मॅाब लिंचिंग की यह घटनाएं अभी केवल आम आदमी तक सीमित हैं। अभी इसका शिकार अधिकतर मज़दूर और आर्थिक स्तर पर कमज़ोर लोग हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब धार्मिक नेता और सियासी नेता भी इसका शिकार होने लगेंगे। इसलिए कि जब तक नेतृत्व भयभीत नहीं होगा तब तक अवाम को ख़ौफ़जदा करके दुश्मन सियासी फा़यदा नहीं उठा सकता है।

मिल्लत की तरफ़ से मॅाब लिंचिंग की इन घटनाओं पर अभी तक कोई काबिले ज़िक्र प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। बहुत से मुसलमान लीडर्स ज़ुबान पर ताला लगाए बैठे हैं, कुछ लोगों ने प्रेस रिलीज़ और बयानात देकर फ़र्ज़ अदा कर दिया है। कुछ संगठनों ने परिवार से मिलकर शोक व्यक्त किया है। कुछ संस्थाओं ने प्रभावित परिवार की कुछ आर्थिक मदद कर दी है। तबरेज़ अंसारी के बाद देश में कुछ धरना प्रदर्शन देखने को मिले हैं। यह सब काम अपनी जगह ठीक हैं मगर इनसे काम नहीं चलने वाला। मौजूदा सरकार ना मुसलमानों के वोट से बनी है न उसे मुसलमानों का वोट चाहिए, वह तो मुसलमानों के वजूद से ही नफ़रत करती है, वह पचीस करोड़ इंसानों को नदी में बहा तो नहीं सकती, ना घुसपैठिया बताकर किसी और देश खदेड़ सकती है, हां वह भयभीत करके उन्हें गूंगा और बहरा बना सकती है। आज जब कि मुल्क की बड़ी बड़ी सेक्यूलर पार्टियां ज़मीन पर आ गई हैं, बड़ बड़े लीडरों ने घुटने टेक दिए हैं। मुसलमानों की मसीहाई का दम भरने वाले मुसलमानों का नाम लेने से भी घबरा रहे हैं। इन हालात में आम मुसलमान क्या कर सकता है?

मॅाब लिंचिंग एक प्रकार की जंग है। मॅाब लिंचिंग करने वालों और कराने वालों ने मानो जंग का ऐलान कर दिया है। उनका सियासी नेतृत्व खुलेआम स्टेज से मुसलमानों को मारने का आदेश दे रहा  है। हम जानते हैं जंग बिना नेतृत्व के ना लड़ी जा सकती है और ना ही जीती जा सकती है। यह तो हो सकता है कि जनशक्ति कम हो, जंग के सामान कम हों लेकिन नेतृत्व के बग़ैर किसी जंग का ख़्याल भी नहीं किया जा सकता। दुश्मन अपने नेता के अधीन जंग कर रहा है और हमारा कोई क़ाइद ही नहीं है। इसलिए मेरी राय है इस संबंध में मिल्ली, सियासी और समाजी संगठनों का एक संयुक्त सम्मेलन होना चाहिए और उसमें इस समस्‍या से निपटने की कार्यविधि बननी चाहिए। अलग अलग अपने झण्डे और बैनर के साथ प्रतिक्रिया, प्रदर्शन से कोई नतीजा नहीं निकलने वाला।

समस्या यह नहीं है कि मुसलमानों में कोई क़ाइद नहीं है बल्कि मसला यह है कि मुसलमानों में नेताओं की भरमार है। आप मुस्लिम पर्सनल लॅा बोर्ड के मेंबर्स की लिस्ट पर नज़र डालिए तो आप देखेंगे कि हर मेंबर किसी अंजुमन, किसी ट्रस्ट, किसी जमाअत, किसी मसलक और किसी बड़े मदरसे का क़ाइद है। मुस्लिम मजलिसे मशावरत जिसकी स्थापना ही मुसलमानों के समाजी और सियासी इश्यूज़ के लिए की गई थी, दर्जनों जमातों का संगठन है। हमारी समस्या क़ाइद का ना होना नहीं बल्कि किसी एक व्यक्ति की क़यादत पर सहमति ना करने का है। कहीं फ़िक़ह और मसलक के इख्तिलाफ़ात, कहीं सियासी मतभेद और कहीं वैयक्तिक अहंकार हमें किसी को क़ाइद मानने की राह में  रूकावट पैदा करता है। हिन्दुस्तान का मुसलमान सौ प्रतिशत धार्मिक है। वह अपने धार्मिक नेतृत्व से अक़ीदत और मुहब्बत रखता है। उनकी इताअत करने में सवाब समझता है। इसलिए जब तक धार्मिक नेतृत्व अपने मतभेद सौहार्द पूर्वक ख़्त्म करके एक दूसरे को गले नहीं लगाएगा तब तक अवाम एकजुट नहीं होगी। सबसे पहले धार्मिक नेतृत्व को खुले दिल से एक दूसरे को गले लगाना होगा, सबको अपनी ही तरह निश्छल मुसलमान मानना होगा। एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर जो दायित्व हैं उन्हें अदा करना होगा। केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में एक स्टेज पर बैठ जाना और तथाकथित एकजुटता का प्रदर्शन करना काफ़ी नहीं है। जब तक मदरसों के सिलैबस में गुमराह फ़िरक़ों की लिस्ट में अपने अलावा सारे फ़िर्के़ शामिल रखे जायेंगे उस समय तक मॉब लिंचिंग होती रहेगी।

 यह कहना कि अवाम एकजुट नहीं है और किसी की बात सुनने को तैयार नहीं है, बिल्कुल ग़लत है। अवाम अपने क़ाइद के हुक्म पर हाज़िर होती है। तब्लीग़ी जमाअत के इज्तिमा में लाखों लाख का जमा होना इसका सबूत है। जमीअत उलेमा की कांफ्रेंस उसकी दलील है, जिस मसलक की जितनी संख्या है उसके अनुसार उसकी कांफ्रेंसों और इज्तिमाओं में लोग पहुंचते हैं। असदुद्दीन ओवैसी की एक झलक देखने को लाखों नौजवान सड़कों पर घण्टों इंतेज़ार करते हैं। मौलाना अरशद मदनी साहब, मौलाना महमूद मदनी साहब के पास लाखों छात्र और हज़ारों अध्यापकों की टीम मौजूद है। वह जब चाहें और जहां चाहें रोड जाम करके पूरे मुल्क के ट्रेफ़िक को जाम कर सकते हैं।

 

मौजूदा हालात में मेरी राय है कि मुसलमान वकीलों को ज़िला स्तर पर लीगल सेल बनाना चाहिये और इस तरह की घटनाओं की क़ानूनी पैरवी करनी चाहिह। अभी इस देश में अगर कोई संस्था बची है तो केवल और केवल अदालत है। जब तक देश का संविधान नहीं बदलता, वर्तमान संविधान के अनुसार फ़ैसले होते रहेंगे और वर्तमान संविधान देश के नागरिकों के बीच इंसाफ़ के मामले में पक्षपाती नहीं है। इसलिए क़ानूनी कार्यवाही माना कि देर से होने वाली प्रक्रिया है लेकिन उसके परिणाम बेहतर साबित होंगे।

 

जहां तक धरना प्रदर्शन का काम है, छोटे छोटे प्रदर्शन करने के बजाए एक ही दिन और एक ही समय पर ट्रेफिक जाम कर देना चाहिए। पूरे देश के हाईवे जब दस बारह घण्टे बंद रहेंगे तो दुनिया भर में आवाज़ गूंजेगी। छोटे प्रदर्शन में समय और पैसा भी बर्बाद होता है और कुछ लोगों की संख्या से कोई प्रभावित भी नहीं होता।

 

कोशिश की जानी चाहिए कि हिन्दुओं का वह नेतृत्व जो स्वयं ब्रह्मणवाद के ख़िलाफ़ है और जिस पर ब्रह्मणों ने हज़ारों साल से ज़ुल्म किया है उस नेतृत्व को साथ मिलाया जाए, जैसा कि असदुद्दीन ओवैसी साहब ने महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर को मिलाया है। दलित और पिछड़े वर्ग को यह बताया जाए कि हिन्दू राष्ट्र में उनकी वही हालत हो जाएगी जो हिन्दुस्तान में मुसलमानों के आने से पहले थी। उनकी नौजवान नस्ल को हिन्दू धर्मग्रन्थों से निकालकर वह बातें बताई जाए जिनमें शूद्रों और दलितों के संबंध में नियम लिखे हैं। प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और इलैक्ट्रानिक मीडिया पर वेद, गीता और मनुस्मृति के नियमों पर वार्ता की जाए; ताकि दलित और पिछड़ा वर्ग आर.एस.एस की घिनावनी साज़िश में उसका साथ ना दें।

 

 

आज़दी के बाद कांग्रेस का राज रहा और मुसलमान आंखें बन्द करके कांग्रेस को वोट करते रहे। बाबरी मस्जिद का ताला खुलने और मंदिर का शिलान्यास करने के बाद विभिन्न सेक्यूलर पाट्रियों ने जन्म लिया और मुसलमानों की मसीहाई का दावा किया। मुसलमानों की मिल्ली क़यादत कभी किसी को, कभी किसी को वोट दिलवाती रही। मुसलमानों को हर कोई यह नसीहत करता रहा कि बु़िद्ध और विवेक से वोट डालना वरना फ़ाशिज्‍म आ जाएगा। मुसलमान अपने विवेक से वोट करके मुलायम, माया, लालू और ममता को कुर्सी पर बैठाता रहा लेकिन नतीजा क्या निकला? आज सारा देश भगवा रंग में है। मुसलमान और सरकार में मानो दुश्मनी का रिश्ता है। इसके बजाए अगर आजादी के बाद अपनी सियासी क़यादत बनाई गई होती तो कम से कम मिल्लत के आंसू पोंछने वाला तो रहता। अभी भी समय है कि केरला में मुस्लिम लीग, आसाम में ए.आई.यू.डी.एफ और तेलंगाना में ए.आई.एम.आई.एम को मज़बूत किया जाए। उसी के साथ दूसरे राज्यों में भी अपनी क़यादत पैदा की जाए। मॅाब लिंचिंग का एक हल यह भी है।

 

 

हम यह भी जानते हैं कि मॅाब लिंचिंग की यह घटनाएं इस्लाम और मुस्लिम दुश्मनी का प्रतीक हैं। संघ परिवार ने अपनी पाठशालाओं, अपने लिट्रेचर, अपने प्रचारकों और अपने समाचार पत्रों के माध्यम से भारत का जो इतिहास अपने लोगों तक पहुंचाया है उसमें मुस्लिम दुश्मनी का ज़हर घोला गया है। यही वह ज़हर है जो आज सियासी सत्ता हासिल हो जाने के बाद उगला जा रहा है। इसका मुकाबला केवल इसी तरह किया जा सकता है कि अपने अमल, अपने अख़लाक और अपने संचार माध्यमों के द्वारा सही इस्लाम लोगों तक पहुंचाया जाए। ऐसा लिट्रेचर प्रकाशित किया जाए, अपने स्कूलों के सिलैबस में ऐसी किताबें शामिल की जाएं और ऐसी फ़िल्में बनाई जाएं जिनमें हिन्दू मुस्लिम भाईचारे और वतन के लिए मुसलमानों की कुर्बानियों का वर्णन हो। अगर यह काम पहले ही बड़े पैमाने पर किया गया होता तो शायद यह नौबत ही ना आती। लेकिन अब भी शुरू कर दिया जाए तो बड़ी तबाही से बचा जा सकता है।

 

 

संक्षिप्त तौर पर यह कि मॅाब लिंचिंग सोची समझी, योजनाबद्ध और आर.एस.एस के नेतरत्व में एक जंग है। जिसका मुकाबला करने के लिए मिल्लत को भी किसी की क़यादत में कार्यविधि बनाकर काम करना होगा। कार्यविधि के अंतर्गत प्रभावी धरना प्रदर्शन, अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संस्थाओं को मेमोरेण्डम, कानूनी पैरवी के लिए जिला स्तरीय मुस्लिम इंसाफ पसंद वकीलों का लीगल सेल, हिंदू धर्म में दलित और पिछड़े वर्ग पर आधारित साहित्य का प्रकाशन, राष्ट्रीय एकता और भाईचारे के स्थायित्व पर आधारित फिल्में और किताबों की तैयारी, अपने जुबान और अमल से इस्लाम की शिक्षाओं की तब्लीग़ को शामिल किया जा सकता है। हालात से मायूस होने की नहीं बल्कि हालात को समझने और मर्दों की तरह मुका़बला करने की ज़रूरत है।

 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति वतन समाचार उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार वतन समाचार के नहीं हैं, तथा वतन समाचार उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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