ज़कात इस्लाम का बुनियादी स्तम्भ है. ज़कात को ना मानने वाला इस्लाम से निकल जाता है, यानी अगर कोई व्यक्ति मुसलमान है और वह जकात देने से मना करता है तो वह इस्लाम से निकल जाता है. ज़कात एक ऐसी चीज़ है जिसकी पूरी परिभाषा (व्याख्या) अल्लाह पाक ने कुरान ए मजीद की सूरा तौबा की आयत नंबर 60 में कर दी है. अल्लाह पाक ने जकात को 8 हिस्सों में बांटा है.
तफ़्सीर अहसनुल बयान के अनुसार इमाम शाफ़ेई का मानना है कि जकात की आठों किस्मों पर हर व्यक्ति के लिए जरूरी है कि वह रकम खर्च करे और थोड़ी-थोड़ी रकम हर किस्म के लिए निकाले. जबकि इमाम मालिक और इमाम अबू हनीफा के अनुसार जकात देने वाले को जिस मद में भी मुनासिब लगता है कि उसमें वह पैसा खर्च कर सकता है, और अपनी ज़कात अदा कर सकता है.
अब सवाल यह है कि ज़कात में अल्लाह ने किन 8 लोगों को शामिल किया है और ज़कात किन को देनी चाहिए? अल्लाह ने पहले नंबर पर जकात में "फ़ोक़रा" यानी फ़कीरों को रखा है. दूसरे नंबर पर मिसकीन को ज़कात देने के लिए कहा है. अक्सर उलेमा का यह मानना है कि फ़क़ीर और मिस्कीन का एक दूसरे का चोली-दामन का साथ है. इसलिए फकीर और मिस्कीन में ज्यादा फर्क नहीं किया जा सकता है. जबकि कुछ लोगों ने फकीर और मिस्कीन ने फर्क किया है, लेकिन उसका सारांश यह है कि फ़क़ीर और मिस्कीन दोनों में से एक के पास पैसा नहीं होता है लेकिन वह फिर भी शर्म की वजह से लोगों से नहीं मांगता है, जबकि दूसरा मांगने के लिए मजबूर हो जाता है.
जकात की तीसरी किस्म में उन लोगों को अल्लाह पाक ने शामिल किया है जो ज़कात के कारिंदे हैं यानि वह लोग जो जकात की वसूली और उसके बांटने के हिसाब किताब का काम करते हैं. एहसानुल बयान के अनुसार जकात की चौथी किस्म में ऐसे लोगों को शामिल किया गया है इस्लाम की तरफ जिनका झुकाव हो. उनकी इमदाद करने पर उम्मीद हो कि वह इस्लाम स्वीकार कर सकते हैं या वह लोग जो नए-नए मुसलमान हुए हैं जिनको इस्लाम पर मजबूती से खड़ा रखने के लिए मदद की जरूरत है, या वह लोग हैं जिनको इमदाद देने की सूरत में यह उम्मीद है कि वह अपने इलाके के लोगों को मुसलमानों पर हमलावर होने से रोकेंगे. इस तरह वह अपने आस पास (करीब) के कमजोर मुसलमानों की रक्षा कर सकेंगे.
तफ़्सीर के अनुसार यह और इस किस्म की दूसरी सूरतों को तालीफे क़ल्ब यानी दिल को नरम करने के बारे में शामिल किया गया है. हालांकि तहसीर के अनुसार अहनाफ़ के नज़दीक इस क़िस्म को खत्म कर दिया गया है लेकिन दूसरे उलेमा कहते हैं कि यह बात सही नहीं है. परिस्थितियों को देखते हुए हमेशा इस मद में जकात खर्च करना जायज और जरूरी है,
जकात की पांचवी किसम में गर्दन आजाद कराने का मामला है. इस का मतलब यह है कि मौजूदा दौर में इस मद में कैदियों को भी छुड़ाने के प्रयास में ज़कात की रक़म खर्च की जा सकती है. "गारेमीन" जकात की छठी किस्म है, जिससे वह परिवार मुराद है जो अपने बाल बच्चों और घर का खर्च उठाने से परेशान हो. उनके पास नकद रक़म भी ना हो. ऐसा सामान भी ना हो जिसे बेचकर वह कर्ज अदा कर सकें. दूसरे वह जिम्मेदार जिन्होंने किसी की जमानत दी और फिर उसकी अदायगी उनके जिम्मा हो गई या किसी की फसल तबाह या कारोबार में घाटा हो गया इस बुनियाद पर वह कर्जदार हो गया. इन सब लोगों की जकात की रकम से मदद करना जायज है.
फी सबीलिल्लाह (अल्लाह के रास्ते में काम करने वाले लोग) यह ज़कात की सातवीं किसम है जिससे मुराद अल्लाह के रास्ते में काम करने वाले लोग हैं, यानी जंगी सामान व जरूरियात और मुजाहिद चाहे वह मालदार ही क्यों न हो. उस पर ज़कात की रकम खर्च करना जायज है. आठवीं क़िस्म "इब्नुस्सबील" यानी मुसाफिर की है. अगर कोई मुसाफिर सफर में परेशान हो चाहे वह अपने घर में खाता-पीता हो और उसके पास पैसे घर पर हों लेकिन सफर की परेशानी दूर करने के लिए उस पर जकात की रक़म खर्च की जा सकती है, जबकि सफर में उसके पास अपनी परेशानी दूर करने का कोई चारा ना हो.
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