रामविलास पासवान ने जयप्रकाश नारायण कर्पूरी ठाकुर और राज नारायण के संरक्षण में राजनीतिक होश संभाला और अपनी राजनीति की शुरुआत की, लेकिन मुख्य रूप से उनकी राजनीति राम मनोहर लोहिया से प्रेरित थी। अपने पूरे जीवन के दौरान उन्होंने लोहिया के इस आदेश को स्वीकार किया कि अमीर और गरीब के बीच संघर्ष में गरीबों का समर्थन ही करना होगा, इसलिए उच्च जाति और दलित या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच लड़ाई में दोनों के कमज़ोरों के समर्थन में उन्होंने हमेशा आवाज बुलंद की और अपने काम को उसी दिशा में जारी रखा।
उनकी पूरी जिंदगी का एकमात्र मिशन अन्याय के विरुद्ध लड़ना और कमज़ोरों और दलितों की आवाज बनना था। उनका स्लोगन था "मैं उस घर में दीया जलाने चला हूं जहां बरसों से अंधेरा है"। रामविलास पासवान ने उन बाधाओं को भी तोड़ा जो राजनीति में स्थापित हो चुकी थी कि नेता अपने समाज या जाति से आगे नहीं देख पाते हैं। उन्होंने इन तमाम बाधाओं के बावजूद सबसे कमजोर नागरिकों के लिए अपनी राजनीतिक पूंजी और शक्ति को हमेशा इस्तेमाल किया। उन्होंने भारतीय राजनीति को को एक नई दिशा देने वाले आंदोलन ओबीसी आरक्षण को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एससी एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की दंडात्मक धाराओं को कम करने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करने के लिए उन्होंने दलित अधिकारों के हितों की रक्षा करने को यकीनी बनाने के लिए प्रयास किया और उसके लिए काम किया।
दलितों और कमजोरों के साथ-साथ रामविलास पासवान का मुसलमानों से हमेशा एक विशेष संबंध रहा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्होंने 2002 में गुजरात दंगों के मद्देनजर अटल बिहारी वाजपेई के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर अपना विरोध जताया। कश्मीर में हालात अनुकूल ना होने के बावजूद वह जार्जाज फर्नांडीस के अलावा कुछ उन नेताओं में से एक थे जो बिना किसी रक्षा या सुरक्षा के पूरे राज्य में घूम सकते थे। लोगों का उन पर पूरा विश्वास था। उन्होंने कश्मीर में "अफस्पा" को हटाने के लिए एक मुखर आवाज उठाई और उस पर अडिग रहे। भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के महासंगठन के लिए उन्काहों ने 2016 के अंत तक काम किया, ताकि भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच एक सामान्य मुद्रा और खुले में व्यापार हो सके और उन्होंने इसके लिए यूरोपीय संघ का फार्मूला पेश किया। वह भारत-पाकिस्तान के अच्छे रिश्तो के लिए भी हमेशा चिंतित रहते थे। वह इस बात को लेकर हमेशा दुखी रहते थे कि पाकिस्तान से अच्छे संबंधों ना होने से भारत के मुसलमानों पर इस का क्या असर पड़ रहा है या पाकिस्तान के साथ खराब संबंध भारत के मुसलमानों पर क्या नकारात्मक असर डाल रहे हैं।
रामविलास पासवान एक ऐसे कद्दावर मंत्री रहे जिन्होंने कभी गरिमा को हाथ से नहीं जाने दिया। नर्अम बोलने वाले और खुद को महत्त्व ना देने वाले एक ऐसे व्यक्ति थे जो हमेशा जनता के बीच मौजूद होते थे। जिन अधिकारियों को उन के साथ काम करने का शुभ अवसर मिला है वह उनके तेज़ तर्रारार दिमाग के साथ शालीन लहजे की जमानत देंगे ना केवल विषयों की बारीकी और तकनीकी को वह समझते थे बल्कि कई बार वह लोगों को उसको समझाने की भी कोशिश करते थे। वह हमेशा शालीनता के साथ अधिकारियों से बर्व्यताव करते। अगर उनके साथ कोई ऐसी घटना घट जाती जिसे वह ना पसंद करते थे फिर भी वह उसको नजरअंदाज कर देते थे मानो ऐसा कुछ हुआ ही न हो।
उन्होंने अपने अधिकारियों से उत्पादकता में सुधार के लिए लालफीताशाही और नौकरशाही को खत्म करने का भी आग्रह किया। वास्तव में वह एक अद्भुत शिक्षक और मार्गदर्शक थे।वह हमारे समय के महान सर्वजनिक वक्ताओं में से एक थे। उनके भाषण विचार और अभिव्यक्ति के रूप आकर्षिता के लिए उल्लेखनीय है। जब भारतीय मुसलमानों की आतंकवाद के आरोपों में गिरफ़्सेतारी शुरू हुयी तो उस वक्त पासवान जी ने ऑल पार्टी मीटिंग बुलाकर सरकार से संवाद किया। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी नेता ने यह किया हो और सभी पार्टियों के समूहों के साथ सरकार से मुलाकात की हो और मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी पर विराम लगाने की बात कही हो।
वह कहते थे कि जब इन्हें आतंकवाद के आरोपों में फंसाया जाता है और इनका सालों साल जीवन बर्बाद होने के बाद यह न्यायालय से निर्दोष साबित होते हैं तो फिर इनकी देखरेख कौन करेगा? इनके बर्बाद हुए सालों की जिम्मेदारी कौन लेगा? वह हमेशा इसको लेकर के चिंतित रहते थे। यही वजह है कि उन्होंने मुखर हो करके हमेशा इस पर आवाज उठाई। पासवान जी की एक नहीं अनेकों बार जाने अनजाने में आलोचना हुई कि वह राजनीतिक मौसम के सबसे बड़े जानकार थे और वह उसी दल के साथ हो लेते थे जिस की सरकार बनने वाली थी। इसको इस तरह भी समझा जा सकता है कि किस दल की सत्ता में बने रहने की ख्वाहिश नहीं होती है। इसके विरुद्ध पासवान जी ने कभी भी अपने राजनीतिक विचारधारा को नहीं छोड़ा। वह कहीं भी रहे किसी सरकार में रहे उन्होंने मुखर होकर के अपनी सोच को आगे बढ़ाया और उन्होंने जिम्मेदारी से राजनीतिक शक्ति का उपयोग करने के महत्व को समझा और इसका निर्वाहन करने में कोई संकोच नहीं किया।
उनका कहना था कि वह उस समुदाय के हितों की रक्षा करना चाहते हैं जो शोषित पीड़ित वंचित दलित आदिवासी पिछड़ा कमजोर अल्पसंख्यक या मुसलमान है। यही वजह है कि उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले इन आरोपों को सहजता से नजरअंदाज कर दिया और कभी उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। एक संत ने एक बार कहा था कि छोटी चीजों के तईं वफादार और सम्माननीय होना एक महान चीज है। पासवान जी उन लोगों में से थे जो मेहमान नवाज थे और लोगों के सुख दुख से भलीभांति अवगत थे। उन्होंने अपने घर पर कभी किसी व्यक्ति के साथ किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया। जो भी आया जिस समुदाय और जिस धर्म का उन्होंने सहजता से उनका स्वागत किया और परंपरागत तरीके से चाय मिठाई और खाने के साथ उनको विदा किया। अगर कोई अपना दुख लेकर के आया तो उसको निवारण का प्रयास किया।
उनके निधन से मानो वह लाखों लोग यतीम हो गए हों जिनके लिए वह एक गार्जियन या एक मसीहा के रूप में थे। जो उन्हें मानते थे। मेरे सबसे प्रिय महोदय! हम नम आंखों से आप को विदा करते हैं। यह कमजोर और गरीब आत्मा पिछले तीन दशकों से अपनी आंखों से आपको देख रही थी कि आप किस तरह से लोगों की भलाई और उनके उत्थान के लिए अपने आपको वक्पोफ़ कर रखा था, आज अनाथ और निराश है। इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारे जैसा अब दूसरा कोई नहीं होगा।
लेखक, एक सेवानिवृत्त सिविल सेवक, लोक जनशक्ति पार्टी के प्रधान हासचिव है। विचार उनके व्यक्तिगत हैं। (यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में इंग्लिश में प्रकाशित हो चुका है, जिस का टाइटल है Ram Vilas Paswan used his political capital to speak for the most vulnerable। हम इंडियन एक्सप्रेस के आभारी हैं )
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