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जब नदी के किनारे पहुंचे मुसलमान

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डॉक्टर मोहम्मद अब्दुल जलील फरीदी मुल्क के जो हालात 1964 से पहले थे इस बारे में पूर्व लोक सभा सांसद इलियास आजमी अपनी किताब में लिखते हैं कि, “तकरीबन हर मुसलमान जो सियासी मैदान में जा सकता था बिना किसी चौखट पर सजदा किए हुए सियासी मैदान में किस्मत आजमाई की सलाहियत खो बैठा था. एक ऐसा ही मिल्ली माहौल और मिजाज बन कर तैयार हो गया था, जिसमें हमारे दारुल उलूमों, यूनिवर्सिटी और कॉलेजों ने मुजाहिद फ़िक्र और अगुवा पैदा करने के बजाए आफियत पसंद लीडरों के डोली बारदारों की खेपैं निकालनी शुरू कर दी. हालात के तेज रफ्तार धारे ने सिर्फ 20 साल की छोटी सी मुद्दत में हुक्मरानी की दावेदार कौम को बर्बादी की ऐसी गहरी खाई के मुंह तक पहुंचा दिया,जिसमें गिर कर कौमें अफसाना बन जाया करती हैं, लेकिन अब मुझे अफसोस होता है, कि शायद कुदरत ने इस मुल्क में मुसलमानों का रोल हमेशा के लिए खत्म करने का फैसला नहीं किया था. अचानक उसकी रहमत जोश में आई और उसने एक ऐसे आदमी से काम लेने का फैसला किया जिसके पुरखों का भी सियासत से कोई ताल्लुक नहीं था. डॉ फरीदी एक ऐसे माहोल में सियासत में आये जा शायर ने कहा था. "अल्लाह रे सन्नाटा आवाज नहीं आती" 26 फरवरी 1964 के UP कौंसिल से तारीखी वाक् आउट के बाद डॉ फरीदी ने इस सन्नाटे को तोड़ने की शुरुआत की और 8-9 अगस्त 1964 को मुस्लिम मजलिसे मुशावरत बनाने के बाद 1967 के इलेक्शन में उन्होंने 9 नेकाती मेमोरेंडम के जरिए मुसलमानों की जुबान खोल देने में कामियाबी हासिल कर ली.यह और बात है कि मुसलमानों की 20 साल से गुंग पड़ी जुबानें जब खुलीं तो मफ़ाद परस्त तबक़े की कोशिशों से उन ज़बानों का पहला निशाना खुद डॉ फरीदी बने. इसकी वजह यह थी कि आफियत पसंद तबके ने उनकी आवाज को अपने खिलाफ़ पाया और उनके खिलाफ साजिशों और झूठे इल्जामात का तूफान खड़ा कर दिया.
लेकिन इस अकेले इन्सान ने अपने मुठ्ठी भर साथियों के साथ अपनों और दुश्मनों की शाज़िशों के बावजूद इस सोई हुई इस कौम को जगाने की जान तोड़ कोशिश की.
वह अपनी कोशिशों में कोई खास ज़ाहिरी कामयाबी हासिल तो हासिल नहीं कर सके और अपनी ही कौम के दिए हुए तरह तरह के खेताबात लिए जल्द ही इस दुनिया से चले गए. लेकिन इस अकेले बीमार और कमज़ोर इंसान ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर इस नीम मुर्दा काफिले को जबरदस्ती गढ्ढे से दूर धकेल कर बर्बाद होने से बड़ी हद तक बचा लिया और मुसलमानों के इस गढ्ढे में गिरकर उनके अफ़साने माजी बन जाने के इमकान का तो तकरीबन खात्मा ही कर दिया. 1964-1974 के दौरान उनकी 10 साला कोशिशों ने ही मुसलमानों को बर्बाद होने से बचा लिया. इसमें किसी तरह की कोई बहस की गुंजाइश ही नहीं है.
डॉक्टर फरीदी, ने ही डॉ आंबेडकर के साथियों को 12 अक्टूबर 1968 को लखनऊ के कैसरबाग बारहदरी में जमा किया और पेरियार रामास्वामी नायकर की मदद से उन्होंने ही दलितों पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के गठजोड़ का पहली बार नारा दिया और इस कंसेप्ट को उन्होंने ही पहली बार जमीन पर भी उतारा.
उन्होंने ही इस काम के लिए एक अच्छी टीम तय्यार की. किसी ज़ाहिरी कामियाबी के बिना ही वह अपने मकसद में सबसे ज्यादा कामयाब सियासी लीडर कहे जा सकते हैं. स्वर्गीय बुनदेश्वरी प्रसाद मंडल डॉ अफरीदी की ही खोज थे. उन्होंने ही इलाहाबाद के मंसूर पारक की इतिहासिक कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता की थी. बुंदेशवरी प्रसाद मंडल के हाथों ही मनुवाद का तलिस्म टूटना मुकद्दर हो चुका था.
सबसे खास बात यह है कि 19 मई 1974 को उनके स्वर्गवास होने के बाद उन्हें सबसे ज्यादा गालियां बकने वाले लोगों ने ही उनका सबसे ज्यादा मातम किया, ताकि मुसलमानों को यह एहसास कराया जासके कि एक आदमी था वह भी चला गया अब इंदिरा गांधी जिंदाबाद लगाने के सिवा तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है.
उन की हैसियत सुबह के उस सितारे की तरह थी जो तारीकियों में भटकने वाले काफिलों को मंजिल की एक झलक और सुबह करीब होने की आशा दिला कर खुद छुप जाया करता है. हवा थी गौ तुंद वा तेज़ लेकिन चिराग अपना जला के छोड़ा वह मरदे दुर्वेश जिसको हक ने दिए थे अंदाज़ खुसरवाना यह पंक्तियां लिखते वक्त मुझे स्वर्गीय काशीराम की याद आती है जिन्होंने मुझसे पहली मुलाकात में कहा था, कि मैंने डॉक्टर फरीदी और उनकी 12 अक्टूबर की लखनऊ कांफ्रेंस के लिटरेचर, और चर्चे से प्रभावित होकर नौकरी छोड़ी और सियासत के मैदान में आया.
वह जब मुसलमानों से नाराज होते तो मुझको बुलाते थे. मैं जोर दे कर कहता कि दलितों के साथ मुसलमानों को बराबरी की बुनियाद पर जोड़ना वक्त की जरूरत है. तो वह कहते थे कि आप मुझसे उन लोगों को जोड़ने की बात करते हैं जिन्हें अपनी ही खबर नहीं. जिन्हें यह पता ही नहीं वह क्या हैं. उनकी हैसियत और ताकत क्या है.
वह गुस्से में कहते जो कौम अपने और हमारे मोहसिन डॉक्टर फरीदी को भूल गई वह मेरे लिए जले कोयले से भी ज्यादा बे-मतलब है. इस को साथ लेकर कोई जंग जीती ही नहीं जा सकती. इस पर मेहनत करना वक्त बर्बाद करने की तरह". यह लेख पूर्व लोक सभा सांसद श्री इल्यास आज़मी की किताब मुसलमानों की सियासत ज़ख्म और इलाज से लिया गया है. इस से वतन समाचार की सहमती जरूरी नहीं है.

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